Monday 30 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 30 September 2013  
(आश्विन कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

अपना कल्याण चाह-रहित होने में है

मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव !

        कल आपकी सेवा में निवेदन किया गया था कि जब तक हम अपना सुधार न करेंगे, तब तक सुन्दर समाज का निर्माण न हो सकेगा । अपनी सुन्दरता में ही सुन्दर समाज निहित है, चाहे हम अपने को राष्ट्र के रूप में, अन्तर्राष्ट्रीय रूप में, समाज के रूप में, व्यक्तिगत जीवन को सामने रखकर अथवा किसी भी दृष्टिकोण से देखें, तो मानना पड़ेगा कि जब तक हम अपने सुधार में रत न होंगे, सुन्दर समाज का निर्माण न होगा ।

        सुन्दर समाज का निर्माण और अपना कल्याण, ये दोनों ही मानव के उद्देश्य हैं, लक्ष्य हैं । इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अपना कल्याण पहले करना होगा अथवा सुन्दर समाज का निर्माण ? तो, ऐसा जान पड़ता है कि ये दोनों ही उद्देश्य भिन्न नहीं हैं, एक ही हैं । ज्यों-ज्यों सुन्दर समाज का निर्माण होता जाता है, त्यों-त्यों अपना कल्याण भी होता जाता है और ज्यों-ज्यों अपना कल्याण होता जाता है, त्यों-त्यों सुन्दर समाज का निर्माण भी होता जाता है । कारण कि, जीवन एक ही है, दो नहीं; समाज और संसार भी एक ही है, दो नहीं । जब जीवन एक है, तो अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण एक ही जीवन के दो पहलू हैं । इनमें से हम किसी भी पहलू पर विचार करें या उसको ठीक करें, दूसरा पहलु अपने आप उसके साथ ठीक हो जाता है । 

        उदाहरणार्थ यदि किसी ने अपने जीवन से दूसरे के अधिकार की रक्षा कर दी, तो इसका परिणाम यह होगा कि वह अपने को अपने उस साथी से मुक्त अनुभव करेगा । यह नियम है कि जिसकी सेवा कर दी जाती है, उसका राग स्वत: मिट जाता है। तो दूसरों के अधिकार की रक्षा से अपने में जो छिपा हुआ राग था, उसकी निवृत्ति हुई । उस राग के निवृत्त होने पर योग का हो जाना स्वाभाविक है । कारण कि, राग से ही भोग का जन्म होता है और राग-रहित होने से योग स्वतः प्राप्त होता है । इस योग का अर्थ है - चित्त-वृत्तियों का सब ओर से हटकर किसी एक ओर लग जाना, अथवा यों कहें कि 'पर' से हटकर 'स्व' में विलीन हो जाना, अथवा यों कहें कि राग से रहित होकर चित्त का वीतराग हो जाना । चित्त की वीतरागता का ही दूसरा नाम योग है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 30-31) ।