Sunday, 27
October 2013
(कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर
आज जिसे हम जीवन
कहते हैं, वह तो जीवन की साधन सामग्री है, जीवन नहीं है । यदि हमें जीवन प्राप्त होता, तो जीवन की लालसा न रहती और न
किसी प्रकार का भय होता । लालसा अप्राप्त की होती है और भय किसी अभाव में होता है ।
क्या आज हमारा जीवन लालसा और भय से मुक्त है ? यदि
नहीं, तो यह मानना ही होगा कि हमें अभी वास्तविक जीवन
प्राप्त नहीं हुआ ।
यह नियम है कि अप्राप्त
की जिज्ञासा स्वत: जागृत होती है । जिज्ञासा की जागृति अस्वाभाविक इच्छाओं को खा लेती
है । स्वभावत: अस्वाभाविक इच्छाओं के मिटते ही बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर स्वत:
होने लगता है, जो मानव में छिपी हुई मानवता को विकसित करने में
समर्थ है । पूर्ण मानवता आ जाने पर ही भक्त को भगवान्, जिज्ञासु को तत्व-ज्ञान, योगी
को योग, और भौतिकवादी को विश्व-प्रेम स्वत: प्राप्त हो जाता
है ।
अब हमें यही सीखना
और सिखाना है कि बल के सदुपयोग और विवेक के आदर द्वारा ही हम लोग अपने में छिपी हुई
मानवता को विकसित करने में प्रयत्नशील रहें ।
मानव-जीवन में एक
बड़ी अलौकिक बात है । वह यह है कि यह ऐसी
बात की आशा नहीं दिलाता, जिसे आप वर्तमान में प्राप्त नहीं कर सकते और न
किसी ऐसी आशा की ओर ही ले जाता है, जिसकी
पूर्ति दूसरों पर निर्भर हो । यदि कोई कहे कि क्या संसार से हमें कुछ नहीं मिल सकता
?
क्या भगवान् से हमें कुछ नहीं लेना है ? तो विचार करो, यह तो प्रश्न तभी उत्पन्न हो सकेगा, जब मानवता से बढ़-कर भी और कोई वस्तु हो । मानवता से संसार के तो अधिकार
की रक्षा हो जाती है, जो संसार को अभीष्ट है और संसार के पास कोई ऐसी
वस्तु ही नहीं है, जो मानवता के लिये अपेक्षित हो ।
अत: यह सिद्ध हो
जाता है कि मानवता प्राप्त हो जाने पर संसार से कुछ भी लेने की आवश्यकता नहीं रहती
। अब रही भगवान् से लेने की बात, तो वह इसलिये उत्पन्न नहीं होती कि मानवता प्रेम
से परिपूर्ण कर देती है । प्रेम ही भगवान् को अत्यन्त प्रिय है । वही उनका मानव पर
अधिकार है । इससे यह सिद्ध हुआ कि मानवता सभी के अधिकारों की पूर्ति करती है । जो मानवता
अधिकार-पूर्ति में समर्थ है, भला, उसके
मिलने पर किसी से कूछ माँगने की बात शेष रहती ही कहाँ है ? यद्यपि वह मानवता भगवान् की अहैतुकी कृपा से ही प्राप्त है ।
संसार के अधिकारों
की रक्षा का परिणाम यह होता है कि मानवता संसार में विभु हो जाती है और प्रेम का परिणाम
यह होता है कि प्रेमी भगवान् से अभिन्न हो जाता है, जो मानव
की वास्तविक माँग है और जिसकी उपलब्धि साधन-युक्त जीवन से ही सम्भव है । साधन करनें
में प्रत्येक साधक सर्वदा स्वतन्त्र है। ।।
ऊँ ।।
- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 75-76) ।