Saturday,
26 October 2013
(कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर
जितेन्द्रियता से
चरित्र-निर्माण और निर्विकल्पता से आवश्यक शक्ति का विकास स्वतः होता है, तथा समता से चिर-शान्ति आ जाती है। चिर-शान्ति आ जाने पर हमें स्वाभाविक
अमर-जीवन प्राप्त हो जाता है । चरित्र-बल के समान और कोई बल नहीं है । निर्विकल्पता
के समान और कोई शक्ति-संचय का साधन नहीं है और समता के समान कोई शान्ति नहीं है । यह
सब कुछ मानव-जीवन में ही निहित है। इस जीवन की प्राप्ति के लिये प्राप्त परिस्थिति
के सदुपयोग के अतिरिक्त किसी अप्राप्त परिस्थिति तथा वस्तु की आवश्यकता नहीं है । यदि
वस्तुओं से जितेन्द्रियता प्राप्त होती, तो उन्हें
हो जाती, जिनके पास वस्तुओं का संग्रह है और यदि किसी बल-विशेष
से प्राप्त होती, तो आज संसार में बल का दुरुपयोग ही क्यों होता ? जब यह निश्चित है कि जितेन्द्रियता किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है, किसी बल पर निर्भर नहीं है, तो फिर
हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक वस्तु हमारे पास नहीं है, इसलिये जितेन्द्रियता नहीं आ सकती ? जिन
साधनों से जितेन्द्रियता प्राप्त होती है, वे साधन
मानव-मात्र को प्राप्त हैं ।
अब आप प्रश्न कर
सकते हैं कि क्या निर्बल इन्द्रिय-लोलुप नहीं हो सकता? हाँ,वास्तविक निर्बल में इन्द्रिय-लोलुपता नहीं होती
और न बल का सदुपयोग करने वाले में ही होती है । तो इन्द्रिय-लोलुपता पता है किसमें
होती है? उसमें जो बल का दुरुपयोग करता है । भाई ! आज हमें
इस झगड़े में नहीं पड़ना है कि हममें कितना बल है और कितना विवेक । जितना भी बल हमारे
पास है, उसका हमें सदुपयोग करना है । ज्यों-ज्यों हम बल
का सदुपयोग करते जायेंगे, त्यों-त्यों आवश्यक बल प्राप्त होता जाएगा और अन्त
में हम उस प्राप्त बल के अभिमान से भी मुक्त हो जायेंगे ।
बल के संग्रह-मात्र
से कोई बल के अभिमान से मुक्त नहीं हो सकता। प्राप्त बल के सदुपयोग से जब हमें आवश्यक
बल मिलेगा, तब हम बल के अभिमान से मुक्त होने के अधिकारी हो
जायेंगे । बल के अभिमान से मुक्त होने का प्रश्न तभी उत्पन्न होता है, जब पहले आवश्यक बल प्राप्त हो । किसी अप्राप्त वस्तु के अभिमान से मुक्त
होने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । जो आवश्यक बल है, वह निर्विकल्पता में ही निहित है । निर्विकल्पता बुद्धि की समता में निहित
है और बुद्धि की समता विवेक में निहित है ।
अत: विवेक से ही
हम बुद्धि की समता प्राप्त करें और बुद्धि की समता से मन में निर्विकल्पता प्राप्त
करें । मन में निर्विकल्पता आ जाने पर बुरे संकल्प अर्थात् अमानवता के संकल्प मिट जाते
हैं और भले संकल्प अर्थात् मानवता के संकल्प पूरे हो जाते हैं । भले संकल्प पूरे होने
पर और बुरे संकल्प मिट जाने पर निर्विकल्पता समता में विलीन हो जाती है ।
मानवता हमें निर्विकल्पता
में आबद्ध रहने के लिये विवश नहीं करती। वह हमें बताती है कि निर्विकल्पता भी एक आवश्यक
स्थिति मात्र है । इससे हमें बुद्धि के सम होने की योग्यता प्राप्त होती है । समता
से हमें अलौकिक विवेक से अभिन्नता प्राप्त होती है । और इसी अभिन्नता में हमें वास्तविक अनन्त नित्य-चिन्मय जीवन प्राप्त होता है । उस दिव्य
जीवन का प्राप्त होना ही अपना कल्याण है।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 72-74) ।