Friday, 25
October 2013
(कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर
वस्तुओं का सम्बन्ध
प्राण तक है, इससे आगे नहीं । प्राण का सम्बन्ध शरीर तक है, इससे आगे नहीं और शरीर का सम्बन्ध मृत्यु से पूर्व तक है, इससे आगे नहीं। आप देखिये, जिस शरीर पर हम विश्वास करते हैं, उसका जन्म होते ही मृत्यु आरम्भ हो जाती है । जो शरीर निरन्तर काल रूपी अग्नि में जल रहा है, उस पर विश्वास करना क्या सही है ? इसका
अर्थ कोई यह न समझे कि शरीर का नाश कर लिया जाय । क्योंकि किसी वस्तु को मिटाने की
बात सोचना भी उसके अस्तित्व को स्वीकार करना है और उस वस्तु से द्वेष करना है, जो वास्तव में एक प्रकार का सम्बन्ध है । अत: जो शरीर और वस्तुएँ हमें
प्राप्त हैं, उनको मिटाने की न सोचें, उनके सदुपयोग की बात सोचें । यदि हम वस्तुओं के उपभोग अथवा विनाश की बात
सोचेंगे, तो वह सही न होगा और उसका परिणाम मानवता न होकर
अमानवता होगा । और वह साधन भी नहीं है । अत: बड़ी
ही सावधानी से हमें प्राप्त बल तथा वस्तुओं का सदुपयोग करना है । उस सदुपयोग के लिये अपने ज्ञान के प्रकाश में अपने
जीवन को रखना है ।
हमारा वर्तमान जीवन
क्या है ? कुछ करना, कुछ
मानना और कुछ जानना । जो कुछ हम करें, वह विवेक
के प्रकाश से प्रकाशित होकर करें। जो कुछ मानें वह विवेक के प्रकाश में ही मानें और
जो कुछ जानें वह स्वयं से जानें । स्वयं से जानने का अर्थ होता है - किसी करण द्वारा
न जानें । यह बडी सूक्ष्म बात है । करण के द्वारा हम जो कुछ जानते हैं, वह पूरा नहीं जानते। विचार कीजिए, इन्द्रियों
द्वारा जिस वस्तु को आप जैसे जानते हैं, वह वास्तव
में वैसी ही है क्या ? आपको मानना होगा कि वैसी नहीं है । नेत्र से सूर्य
छोटा सा दिखाई देता है, परन्तु क्या सूर्य छोटा सा है ? कहना होगा, नहीं
।
ऐसे ही बुद्धि से
जो हम जानते हैं, क्या वह सही जानते हैं ? यद्यपि इन्द्रियों की अपेक्षा बुद्धि का ज्ञान अधिक सही है, पर वास्तविक ज्ञान तो बुद्धि के मौन होने पर ही होता है, जो विलक्षण है । बुद्धि से जानने का भी जीवन में स्थान है, और इन्द्रियों से जानने का भी जीवन में स्थान है । इन्द्रियों द्वारा
जो हम जानते हैं, उससे तो हमें केवल वस्तुओं का उत्पादन कर उपभोग
करना है और बुद्धि द्वारा जो कुछ हम जानते हैं, उससे
केवल वस्तुओं के सतत् परिवर्तन को जानना है ।
वस्तुओं के सतत्
परिवर्तन को जानकर हम राग से रहित हो जाते हैं और राग से रहित हो जाने पर बुद्धि की
आवश्यकता शेष नहीं रहती । जब बुद्धि का कार्य पूरा हो जाता है, तब वह स्वत: अपने अधिष्ठान में विश्राम पा जाती है, तब हमारा मन निर्विकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है और इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर अविषय हो जाती हैं, अर्थात् बुद्धि के सम होते ही निर्विकल्पता, जितेन्द्रियता और समता आ जाती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 71-72) ।