Thursday 24 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 24 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

साधन-निर्माण के लिये अधिकार-भेद से विश्वास भी अपेक्षित है, चिन्तन भी अपेक्षित है, प्रवृत्ति भी अपेक्षित है और सम्बन्ध भी अपेक्षित है । पर, सम्बन्ध किसके साथ हो ?  विश्वास किस पर हो ? चिन्तन किसका हो ? प्रवृत्ति कैसी हो ? इन्हीं पर विचार करना है ।  इन्हीं को देखना है । केवल भगवत्-विश्वास अथवा कर्त्तव्य-विश्वास ही साधन रूप विश्वास है । तत्व-चिन्तन अथवा प्रिय-चिन्तन ही सार्थक-चिन्तन है । जिस प्रवृत्ति में दूसरे का हित निहित है, वही सार्थक प्रवृत्ति है, सबसे अथवा अपने से अथवा प्रभु से सम्बन्ध जोड़ना ही सार्थक सम्बन्ध है ।

इसका यह अर्थ हुआ कि जितनी भी चीजें हमारे जीवन में हैं, वे सब ज्यों-के-त्यों हैं, पर, उनके रूप और स्थान बदल गये । स्थान बदलते ही वे साधन-रूप हो गये और साधन-रूप होते ही साधक और साधन में अभिन्नता हो गई तथा साधन से अभिन्नता होते ही साध्य की प्राप्ति हो गई । इससे यह सिद्ध हुआ कि हम सब साधक बनने में सर्वदा स्वतन्त्र हैं, परतन्त्र नहीं । कारण, कि जिस सामग्री की आवश्यकता साधन में होती है, वह सारी सामग्री हमारे और आपके पास है ।

विश्वास वही सुरक्षित रहता है, जिसमें अपनी अनुभूति का विरोध न हो । आज हम अपनें विश्वास की खोज करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जाग्रति तथा स्वप्न की सभी वस्तुएँ गहरी नींद अर्थात् सुषुप्ति में हमें प्रतीत नहीं होती । पर हम उस समय दुःख से रहित होते हैं । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जाग्रति एवं स्वप्न की वस्तुओं के बिना हम दुखी नहीं होते । हमारी यह अनुभूति जाग्रति और स्वप्न में प्रतीत होने वाली वस्तुओं के विश्वास को खा लेती है । जिन वस्तुओं की प्रतीति सुषुप्ति में ही नहीं रहती, उनका अस्तित्व भला, समाधि और मुक्ति में कैसे रहेगा ?

 यद्यपि विश्वास बड़े ही महत्व की वस्तु है, पर वह भगवान् के प्रति हो, कर्त्तव्य के प्रति हो, अपने गुरु के प्रति हो अथवा अपने पर हो । इसके अतिरिक्त विश्वास का साधन में कोई स्थान नहीं है । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि उपर्युक्त बिश्वासों के अतिरिक्त क्या हम उन वस्तुओं पर जो प्राप्त हैं अथवा निकटवर्ती सम्बन्धियों पर एवं अन्य व्यक्तियों पर विश्वास न करें ? तो कहना होगा - 'न करें' । तो क्या करें ? वस्तुओं का सदुपयोग करें और व्यक्तियों की सेवा करें । आपको जो व्यक्ति मिला है, वह विश्वास करने के लिए नहीं, सेवा करने के लिए मिला है । आपको जो वस्तुएँ मिली हैं, वह संग्रह करने के लिये अथवा विश्वास करने के लिए नहीं मिली हैं । वे सदुपयोग करने के लिये मिली हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 69-71)