Wednesday,
23 October 2013
(कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर
तत्व-जिज्ञासा कहो
अथवा मानवता की माँग कहो अथवा प्रिय की लालसा कहो, ये तीनों
ही दृष्टि-भेद से भले ही अलग-अलग हो, किन्तु
वास्तव में एक हैं । अपने को मानव मानकर जिसे हम मानवता कहते हैं, जिज्ञासु मानकर उसी को तत्व-जिज्ञासा कहते हैं, भक्त मानकर उसी को प्रिय की लालसा कहते हैं और विषयी मानकर उसी को आसक्ति
कहते हैं । सारांश यह निकला कि आसक्ति को ही प्रिय की लालसा, तत्व-जिज्ञासा अथवा मानवता में परिणत करना है । आसक्ति को तत्व-जिज्ञासा, प्रिय की लालसा एवं मानवता में हम तभी परिणत कर सकेंगे, जब हृदय सन्देह की वेदना से पीड़ित हो, प्रभु
के प्रति सरल विश्वास से परिपूर्ण हो एवं
निर्दोषता प्रिय हो ।
सरल विश्वास उसे
कहते हैं, जिसमें कोई विकल्प न हो, जो सहज भाव से प्राप्त हो, जिसे
यह विश्वास हो कि प्रभु मेरे हैं और मैं प्रभु का हूँ ? 'वह' कहाँ है? कैसा
है ? यह न जानते हुए भी जिसे अपने और प्रभु के नित्य-सम्बन्ध
पर विश्वास हो, उसी का नाम सरल विश्वास है । अर्थात्, जो यह मान लेता है कि मैं प्रभु का हूँ, उसकी आसक्ति प्रिय की लालसा में बदल जाती है । जो अपने जाने हुए सन्देह
को सहन नहीं कर सकता, उसी की आसक्ति तत्व-जिज्ञासा में बदल जाती है ।
सन्देह कुछ न जानने पर नहीं होता और सब कुछ जानने पर भी नहीं होता ।
सन्देह की उत्पत्ति
तब होती है, जब हम कुछ जानते हों और कुछ न जानते हों, अर्थात्
अधूरी जानकारी में । सन्देह की वेदना ही तत्व-जिज्ञासा जागृत करती है और तत्व-जिज्ञासा
आसक्ति को भस्मीभूत कर देती है। आसक्ति का अन्त होने पर तत्व-जिज्ञासा की पूर्ति, प्रिय की लालसा की नित-नव जागृति और मानवता की प्राप्ति हो जाती है ।
इससे यह सिद्ध हुआ
कि हमारी आसक्ति ही हमारे अभीष्ट की प्राप्ति में बाधक है, और कोई नहीं । अतएव हमारे विकास के लिए हमें सबसे पहले अपनी आसक्तियों
का ही पता लगा लेना चाहिए ? आसक्तियों को जानने के लिये हमें अपनी वस्तुस्थिति
का अध्ययन करना होगा और वस्तु-स्थिति का अध्ययन करने के लिए जो ज्ञान हमें प्राप्त है, उसके
प्रकाश में हमें अपने समग्र जीवन को रखना होगा । समग्र जीवन का अर्थ है - अपनी चेष्ष्टाएँ, सङ्कल्प तथा चिन्तन आदि ।
ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जिसके जीवन में किसी-न-किसी प्रकार का विश्वास न हो, किसी-न-किसी प्रकार का चिन्तन न हो, किसी-न-किसी
प्रकार की प्रवृत्ति न हो । जब हमारी सभी चेष्टाएँ, सकल्प
तथा चिन्तन निज-विवेक के प्रकाश से प्रकाशित हो जाते हैं, तब उनमें शुद्धता आ जाती है । शुद्धता आते ही बुरे संकल्प सदा के लिये मिट जाते हैं और भले संकल्प स्वतः पूरे हो
जाते हैं, व्यर्थ-चिन्तन मिट जाता है, सार्थक-चिन्तन
उदित हो जाता है; दूषित प्रवृत्ति मिट जाती है, शुद्ध प्रवृत्ति उदित हो जाती है; जो विश्वास
नहीं करना चाहिए वह मिट जाता है और जो विश्वास होना चाहिए वह हो जाता है । इन सब बातों
के समूह का नाम साधन-तत्व है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 67-69) ।