Monday 23 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 23 September 2013  
(आश्विन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        सुन्दर समाज का असली दृश्य क्या है ? जहाँ किसी विधान की आवश्यकता न हो, जहाँ बल के द्वारा किसी को बात मनवाने की आवश्यकता न हो। मुझ से कई मिलने वाले लोग कहते हैं कि अमुक देश बड़ा ही सुन्दर है, तो मैं पूछता हूँ कि क्या उस देश में पुलिस है ? क्या उस देश में फौज रखते हैं ? क्या उस देश में सी० आई० डी० है? क्या उस देश में न्यायालय है ? जब वे कहते हैं कि ये सब हैं । तो मैं कहता हूँ कि वहाँ जितना सुन्दर समाज होना चाहिए, उतना नहीं है । चाहे वह देश अन्य देशों से अधिक सुन्दर भले ही हो। आप विचार करें कि जिस शहर में ताला लगाना पड़ता है, क्या उसे सुन्दर शहर कहेंगे ? शहर में सुन्दर-सुन्दर सड़कें हो, सुन्दर- सुन्दर बगीचे हो, रहने के लिये सुन्दर बंगले हो, परन्तु जहाँ रहने वाले सुरक्षित न हो, तो क्या उसे सुन्दर शहर कहेंगे ? कभी नहीं। जहाँ दूकानदार को दूकान पर ताला लगाना पड़ता हो, चौकीदार रखने पड़ते हो, तो क्या आप कहेंगे कि वह हमारा कुटुम्ब, हमारा समाज और हमारा शहर सुन्दर है ? नहीं कह सकते ।

        जहाँ सुन्दरता आ जाती है वहाँ इन चीजों की जरूरत नहीं होती । न चौकीदार रखना पड़ता है और न ताला ही लगाना पड़ता है। सुन्दरता का वास्तविक अर्थ यह है कि हम सब अनेक होते हुए भी एक होकर रहें ।

        अब प्रश्न होता है कि एक कैसे हों ? यद्यपि सभी प्राणी सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में जडतायुक्त स्वरूप की एकता अनुभव करते हैं । परन्तु उस एकता का कोई महत्व नहीं है। वास्तविक महत्व तो उस एकता का है, जिसमें हम जाग्रत अवस्था में विविध प्रकार की भिन्नता होते हुए भी एकता का अनुभव करें । वह तभी सम्भव है, जब हम एकमात्र अपना कर्त्तव्य जानें और उसमें तत्पर हो जाएँ । आज जो हमें हमारे सुधारक, अधिकारों का गीत सुनाकर अपने अधिकार सुरक्षित रखने की प्रेरणा करते हैं, यह बात कब तक रहती है ? जब तक कि सुधारक महोदय किसी पद पर आरूढ़ नहीं हो जाते हैं । पद-प्राप्ति के बाद अधिकार का पाठ पढ़ाने वाले सुधारक महानुभाव हमारे अधिकार भूल जाते हैं और अपने अधिकारों का उपभोग करने लगते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 20-21) ।