Tuesday 24 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 24 September 2013  
(आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        यदि कोई कहे कि अधिकार का क्या मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है? तो उसका उत्तर यही होगा कि अपने अधिकार की प्रियता से हम यह अनुभव करें कि दूसरों को भी अपना अधिकार प्रिय है और दूसरों की प्रियता की पूर्ति ही मानवता है । जैसे कि हम अपनी प्यास की वेदना के द्वारा दूसरों की प्यास बुझाने का प्रयत्न करते हैं, तो वास्तव में यही मानवता है । यदि कोई यह सन्देह करे कि हम अपने अधिकार न माँगें या प्राप्त अधिकारों की रक्षा न करें, तो हमारा अस्तित्व ही न रहेगा, क्योंकि प्राय: देखने में यही आता है कि सबल निर्बल के अधिकार का अपहरण कर लेते हैं । परन्तु इसी प्रमाद से तो एक वर्ग दूसरे वर्ग को मिटाने के लिए प्रयत्नशील होता है । यह सन्देह तभी सिद्ध होता, जब कर्त्तव्य-परायणता की बात किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष से ही कही जाती । जब कर्त्तव्यपरायणता का पाठ सभी व्यक्तियों, कुटुम्बों, वर्गों और दलों को पढना है और उसका अनुसरण करना है, तब उपर्युक्त सन्देह के लिये कोई स्थान नहीं रहता ।

        यह पाठ मानवता का पाठ है । यह किसी जाति विशेष का नहीं, किसी वर्ग विशेष का नहीं, किसी दल विशेष का नहीं । यदि कोई यह सन्देह करे कि कर्त्तव्य की बात सदैव निर्बलों को बताई गई है, सबल निर्बलों के अधिकार का अपहरण करते रहे हैं और उन्हें अपनी खुराक बनाते रहे हैं, उसी का भयङ्कर परिणाम यह हुआ कि दुखी वर्ग का आकर्षण कर्त्तव्य की अपेक्षा अधिकार की ओर अधिक हो गया । तो क्या कमी कर्त्तव्य-शून्य अधिकार सुरक्षित रह सकेगा ? कदापि नहीं । 

        जिस दोष ने दूसरों का अधिकार छीनने की भावना जाग्रत कर दी, क्या उस दोष के रहते हुए हम अपना अधिकार सुरक्षित रख सकेंगे ? जिस दोष ने आज पहले वाले सबल को निर्बल बना दिया, क्या उस दोष को हमें अपने पास रखना चाहिये ।  उस दोष को रखकर क्या कालान्तर में हमारी वही दशा नहीं हो जायेगी, जो आज उन सबल लोगों की हुई, जिन्होंने अथवा जिनके पूर्वजों ने इस दोष को अपनाया ? हम लोगों को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि जो दोष गुण के वेष में आता है; वह बड़ा ही भयङ्कर तथा दुखद सिद्ध  होता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 21-23) ।