Saturday, 21 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 21 September 2013  
(आश्विन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        आज हम स्वरूप से एकता करने की जो कल्पना करते हैं वह विवेक की दृष्टि से अपनों को धोखा देना है अथवा भोली-भाली जनता को बहकाना है । सोचिये कि, सुन्दर मकान क्या उसे कहेंगे जिसमें सब कमरे समान हो अथवा उसे कहेंगे जिसमें सब कमरे अपने-अपने कार्य के लिए उपयुक्त हों? जैसे शौचालय अपने स्थान पर ठीक हो, रसोईघर अपने स्थान पर ठीक हो, बैठने का कमरा अपने स्थान पर ठीक हो, सोने का कमरा अपने स्थान पर ठीक हो, कार्य करने का कमरा अपने स्थान पर ठीक हो । सब कमरे अपने-अपने स्थान पर ठीक हों, तो उन्हीं के समूह को आप सुन्दर मकान कहेंगे । इसी प्रकार सुन्दर शरीर आप उसे कहेंगे, जिसमें प्रत्येक अवयव अपने-अपने स्थान पर सही और स्वस्थ हो । सुन्दर समाज उसे कहेंगे, जिसका प्रत्येक वर्ग अपने-अपने स्थान पर सही हो, ठीक हो। कहने का तात्पर्य यह है कि सुन्दरता का अर्थ अनेक विभिन्नताओं का अपने-अपने स्थान पर यथेष्ट होना है । 

        अब विचार यह करना है कि जब हमें अपने अधिकार प्रिय हैं, तो हमारे अधिकार क्या होंगे ? हमारे अधिकार वही होंगे, जो हमारे साथियों के कर्तव्य हैं । और हमारे साथियों के अधिकार वे हैं, जो हमारे कर्त्तव्य हैं । हमारे अधिकार तभी सुरक्षित रह सकते हैं, जब हमारे साथी कर्त्तव्य-परायण हों; और हमारे साथियों के अधिकार तभी सुरक्षित होंगे, जब हम कर्त्तव्यनिष्ठ हों । हमारी कर्त्तव्यनिष्ठा ही हमारे साथियों में कर्तव्यपरायणता उत्पन्न करेगी; क्योंकि, जिसके अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं, उसके हृदय में हमारे प्रति प्रीति स्वतः उत्पन्न हो जाती है, जो उसे कर्त्तव्य-परायण होने के लिए विवश कर देती है ।

        अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि हमारी कर्त्तव्य-निष्ठा ही हमारे अधिकारों को सुरक्षित रखने में समर्थ है । यह भली-भाँति जान लेना चाहिए कि अधिकार कर्त्तव्य का दास है। हम अपने अधिकार की रक्षा में भले ही परतन्त्र हों, परन्तु इस बात में सर्वदा स्वतन्त्र हैं कि अपने साथियों के अधिकारों की रक्षा करें । इसमें कोई पराधीन नहीं है । तो आप विचार करें कि सुन्दरता समाज में कब आयेगी ? जब व्यक्ति में सुन्दरता हो तब आयेगी या समाज में सुन्दरता हो तब व्यक्ति में सुन्दरता आयेगी ?  

        इस दृष्टिकोण को सामने रखकर आप सोचें कि अपने को सुन्दर बनाने में हम पराधीन नहीं हैं । हमारा साथी सुन्दर हो, इसमें हम भले ही पराधीन हों । इससे यह सिद्ध हुआ कि जब हम स्वयं सुन्दर होने में स्वतन्त्र हैं, तो यह क्यों सोचें कि पहले हमारा साथी निर्दोष तथा सुन्दर हो ? प्रत्येक भाई-बहिन को यह सोच लेना चाहिए कि हम सुन्दर होने में स्वाधीन हैं और हमारे साथी को हमारी सुन्दरता की आवश्यकता भी है । तो हम पहले स्वयं ही सुन्दर बनेंगे । हमारी सुन्दरता स्वयं हमारे साथियोंको सुन्दर बनाने में समर्थ होगी । जिस प्रकार सुगन्धित पुष्प से स्वयं सुगन्ध फैलती है, उसी प्रकार सुन्दर जीवन से समाज में सुन्दरता फैलती है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 17-19) ।