Friday, 20 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 20 September 2013  
(आश्विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        गम्भीरता से सोचिये, यदि समानता का अर्थ परिस्थितियों की एकता हो, तो समान परिस्थितियों मे गति स्वत: रुक जाती है। जैसे कल्पना करो, नेत्र और पैर में समानता हो जाय, नेत्र और पैर दोनों चलने लगें अथवा देखने लगें तो गति होगी क्या ? लेकिन नेत्रों में देखने की योग्यता है और पैरों में चलने की । दोनों में कर्म, गुण और आकृति की भिन्नता होते हुए भी प्रीति की एकता है, तभी गति सुचारु रूप से होती है ।

        इस दृष्टिकोण से मानना होगा कि परिस्थिति तथा अवस्था की समानता के द्वारा सुन्दर समाज का निर्माण नहीं हो सकता । गहराई से विचारिये तो परिस्थितियों की एकता प्राकृतिक नियम के सर्वथा प्रतिकुल है । परिस्थिति और गुणों की विभिन्नता होते हुए भी लक्ष्य और प्रीति की एकता होने से ही सुन्दर समाज का निर्माण सम्भव है । समान अवस्था सुषुप्ति अर्थात् गहरी नींद में है, परन्तु उसमें जडतायुक्त शान्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यवहार की सिद्धि नहीं होती । जाग्रति और स्वप्न में कभी समान अवस्था नहीं हो सकती और इसी विषमता से व्यवहार सिद्ध होता है । यह प्रत्येक मानव का दैनिक अनुभव है । परन्तु परिस्थिति और अवस्था की विषमता में भी एक दूसरे के अधिकार की यदि रक्षा हो जाय, तो वहाँ विषमता में भी समानता ही मानी जायगी और परस्पर संघर्ष नहीं होगा । 

        कल्पना करो, एक रोगी है और एक डाक्टर । यदि दोनों की अवस्था एक हो जाय और फिर चिकित्सा हो, तो क्या यह समानता मानी जायगी ? किन्तु रोगी तो डाक्टर की आज्ञा माने और डाक्टर रोग का निदान एवं चिकित्सा करे तथा दोनों में स्नेह की एकता हो, तभी सुन्दरता आयेगी । हम तो आजकल समानता का यह अर्थ करने लगे हैं कि हम सब की परिस्थितियाँ एक हो जायँ, परन्तु यह मानवता और प्रकृति के बिलकुल विरुद्ध है। ऐसी समानता न कभी हुई है और न कभी होगी । हाँ, एक बात अवश्य है कि जहाँ दो आवश्यकताएँ एकत्र होती हैं, वहीं समाज बनता है; केवल एक आवश्यकता से समाज नहीं बनता ।

        जैसे जहाँ विद्यार्थी हो, पर विद्वान न हो, विद्वान हो पर विद्यार्थी न हो, महिला हो किन्तु पुरुष न हो, पुरुष हो किन्तु महिला न हो, महाजन हो किन्तु मजदूर न हो, मजदूर हो किन्तु महाजन न हो, वहाँ समाज नहीं बन सकेगा । समाज वहीं बनेगा जहाँ महिलायें और पुरुष दोनों हो, विद्यार्थी और विद्वान दोनों हो, महाजन मजदूर दोनों हो ।

        हम सुन्दर समाज उसे कहेंगे, जहाँ महाजनों के द्वारा मजदूरों के अधिकार सुरक्षित हो और मजदूरों के द्वारा महाजनों के अधिकार सुरक्षित हो; विद्वानों के अधिकार विद्यार्थियों द्वारा सुरक्षित हो; विद्यार्थियों के अधिकार विद्वानों द्वारा सुरक्षित हो; रोगी के अधिकार डाक्टर द्वारा सुरक्षित हो, डाक्टर के अधिकार रोगी द्वारा सुरक्षित हो आदि । जहाँ एक से अधिक वर्ग होते हैं वहीं समाज होता है । जहाँ एक वर्ग होता है वहाँ समाज नहीं होगा । केवल मजदूरों से समाज नहीं बनेगा, केवल महिलाओं से समाज नहीं बनेगा । तात्पर्य यह है कि दो आवश्यकतायें जहाँ एकत्र होती हैं, उसी का नाम समाज समझना चाहिए । जब तक किसी एक की आवश्यकता किसी दूसरे की आवश्यकता की पूरक न हो, तब तक समाज की स्थापना ही सिद्ध नहीं होती ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 15-17) ।