Thursday 19 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 19 September 2013  
(भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

सुन्दर समाज का निर्माण

मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव ! 

        कल आपकी सेवा में निवेदन किया था कि साधनयुक्त जीवन मानव-जीवन है । इस दृष्टि से हम सब साधक हैं और जो परिस्थिति हमें प्राप्त है, वह सब साधन-सामग्री है । इस साधन-सामग्री का उपयोग करना साधना है ।

        इस साधन के दो मुख्य अंग हैं - एक तो वह साधन कि जिससे अपना कल्याण हो और दूसरा वह जिससे सुन्दर समाज का निर्माण हो । अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण, यह मानव-जीवन की वास्तविक मांग है । जो लोग इन दोनों विभागों को जीवन की माँग नहीं मानते, वे वास्तव में विवेक दृष्टि से मानवता को नहीं जानने हैं । मानव-जीवन एक ऐसा महत्वपूर्ण जीवन है कि जिसको पाकर प्राणी सुगमतापूर्वक अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । कारण कि, मानव-जीवन में ऐसी कोई प्रवृत्ति, अवस्था एवं परिस्थिति नहीं है जो साधन-रूप न हो, अर्थात् यह जीवन साधन-सामग्री से परिपूर्ण है । 

        अब विचार यह करना है कि अपने कल्याण का अर्थ क्या है और सुन्दर समाज के निर्माण का अर्थ क्या है ? अपने कल्याण का अर्थ है-- अपनी प्रसन्नता के लिए अपने से भिन्न की आवश्यकता न रहे और सुन्दर समाज के निर्माण का अर्थ है कि जिस समाज में एक दूसरे के अधिकारों का अपहरण न होता हो। कुछ लोग सुन्दर समाज का अर्थ मानते हैं - सुन्दर-सुन्दर मकानों का निर्माण, सुन्दर-सुन्दर सड्कों का निर्माण,  सुन्दर-सुन्दर बगीचों का निर्माण । ये सब तो बाह्य चीजें हैं ।  

        वास्तव में सुन्दर समाज की कसौटी यह है कि जिस समाज में किसी के अधिकारों का अपहरण न होता हो । यदि किसी भाई-बहिन से पूछा जाय कि तुम अपनी समझ से किस  घर को सुन्दर कहते हो ? तो वे कहेंगे कि जिस घर में ऐसा कोई व्यक्ति न हो, जिसके अधिकार सुरक्षित न हो । उस घर को सभी लोग अच्छा घर मानेंगे, जहाँ कि वृद्धजन बालकों के अधिकारों को सुरक्षित रखते हों, और बालक वृद्धों के अधिकारों को सुरक्षित रखते हों, बहिन भाई के अधिकार को सुरक्षित रखती हो और भाई बहिन के अधिकार को सुरक्षित रखता हो । ऐसे ही पति पत्नी के अधिकार को सुरक्षित रखता हो और पत्नी पति के अधिकार को सुरक्षित रखती हो । वैसे ही समाज में मित्र-मित्र के और पड़ोसी-पड़ोसी के अधिकार को सुरक्षित रखता हो । 

        यानी जितने भी सम्बन्ध हैं, उनमें यदि एक दूसरे के अधिकार सुरक्षित रहते हैं, तो उस घर को, उस समाज को सुन्दर कहेंगे । तो सुन्दर समाज की पहिचान यह हुई कि जहाँ किसी के अधिकार का हनन न होता हो । कोई कहते हैं कि सर्वांश में समानता ही सुन्दर समाज का प्रतीक है । इस पर आप विचार करें, तो स्पष्ट हो जायगा कि समानता का यह अर्थ नहीं हो सकता कि हमारी सबकी परिस्थितियाँ एक हो जाएँ अथवा अवस्था एक हो जाय ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 13-15) ।