Wednesday, 18 September 2013
(भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग
विवेक-शून्य सदाचार वृक्षों में भी है, परन्तु उन्हें मानवता नहीं मिलती, क्योंकि वे बेचारे जड़ता के दोष में आबद्ध हैं । संग्रह रहित बहुत से पशु भी होते हैं, परन्तु उन वेचारों को कोई साम्यवादी या परमहंस नहीं कहता । पराये बनाये घर में बहुत से पशु रह जाते हैं, पर उन्हें कोई विरक्त नहीं कहता । इससे यह सिद्ध हुआ कि विवेक-पूर्वक उदारता एवं त्याग से ही मानव 'मानव' होता है । अवस्था, कर्म, परिस्थिति, भाषा, वेष, मत, विचारधारा, दल, सम्प्रदाय आदि विविध भेद होते हुए भी मानवता हमें स्नेह की एकता की प्रेरणा देती है ।
स्नेह की एकता संघर्ष उत्पन्न नहीं होने देती । संघर्ष का अभाव मानव को स्वभावत: प्रिय है, क्योंकि संघर्ष से किसी-न-किसी का विनाश होता है । अपनी विनाश किसी भी मानव के अभीष्ट नहीं है । कारण कि, प्राकृतिक नियमानुसार जिस विकास का जन्म किसी के विनाश से होता है, उसका विनाश स्वयं हो जाता है । अत: मानवता हमें उस विकास की ओर प्रेरित नहीं करती, जिसका जन्म किसी के विनाश से हो । यह भली-भाँति जान लेना चाहिये कि मानवता भौतिकवाद की दृष्टि से प्राकृतिक, आस्तिकवाद की दृष्टि से अपौरुषेय विधान और अध्यात्मवाद की दृष्टि से अपना ही स्वरूप तथा स्वभाव है। अतएव मानवता का त्याग किसी भी मानव को करना उचित नहीं है ।
स्नेह की एकता आ जाने पर प्रेमी को प्रेमास्पद, योगी को योग, जिज्ञासु को तत्वज्ञान और भौतिकवादी को वास्तविक साम्य एवं चिर-शान्ति स्वत: प्राप्त होती है । स्नेह की एकता स्वार्थ को खा लेती है । उसके मिटते ही सर्वहितकारी प्रवृत्ति स्वत: होने लगती है, जिसके होने से सच्चा साम्य एवं शान्ति आ जाती है । स्नेह की एकता किसी भी प्रकार का भेद शेष नहीं रहने देती । भेद के गलते ही अहंभाव मिट जाता है और स्वत: तत्व-ज्ञान हो जाता है । स्नेह सब कुछ खाकर केवल प्रेम को ही शेष रखता है, जो प्रेमास्पद से अभिन्न करने में स्वत: समर्थ है ।
मानवता हमें सभी मतों एवं सिद्धान्तों के द्वारा वास्तविक अभीष्ट तक पहुँचा देती है । अत: सब भाई-बहिनों को मानवता प्राप्त करने के लिये निज-विवेक के प्रकाश में अपनी योग्यता के अनुसार साधन निर्माण करने के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। यह नियम है कि अपनी योग्यतानुसार साधन-निर्माण करने से सिद्धि अवश्य होती है ।। ओउम् ।।
- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।