Tuesday, 17 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 17 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        मानव-जीवन सुख-दुःख का भोग करने मात्र के लिए नहीं मिला है, अपितु उनके बन्धन से मुक्त होने के लिए मिला है । सुख-दुःख भोगने का अवसर तो मानव से अतिरिक्त अन्य योनियों में भी होता है । परन्तु, उन योनियों में सुख-दुःख से उपर उठने की योग्यता नहीं है । कारण कि, उन योनियों में विवेक का प्रकाश मानव के समान नहीं है । प्राकृतिक नियमानुसार जिन योनियों में विवेक की कमी है, अर्थात् विवेक सुषुप्तवत् है, उन योनियों में सुख-दुःख भोगने की मर्यादा भी स्वत: सिद्ध है । जैसे, पशु यदि भूखा हो और उसका खाद्य-पदार्थ उसके निकट हो, तो वह अपने को रोक नहीं सकता, परन्तु साथ ही बची हुई खुराक का संग्रह भी नहीं कर सकता । 

        मानव भले ही अपनी गाय के लिए चारा संग्रह करे, परन्तु बेचारी गाय अपने लिए चारा संग्रह नहीं कर सकती । मानव भूखा हो और अनुकूल भोजन भी प्राप्त हो, परन्तु भोजन  करना यदि उसकी मर्यादा के प्रतिकूल हो, तो वह भूखा रह जायगा । किन्तु कभी स्वाद अथवा आदर की आसक्ति से प्रेरित  होकर वह बिना भूख भी खा लेता है । 

        इससे यह सिद्ध हुआ कि मानव वह भी कर लेता है जो उसे करना चाहिये, और प्रमादवश वह भी कर बैठता है जो उसे नहीं करना चाहिये । अपौरुषेय विधान में मानव को ऐसी स्वाधीनता क्यों मिली ? पशुओं की भाँति वह पराधीन क्यों  नहीं बनाया गया ? इसका प्रधान कारण यह है, कि मानव को उस विधान में विवेक मिला है । जिस उदार ने विवेक प्रदान किया, उसने मानव की ईमानदारी पर विश्वास किया कि वह उसका आदर अवश्य करेगा । तो क्या हमें अपने उस दाता के प्रति विश्वासधाती होकर विवेक का अनादर करना चाहिये ? विवेक के अनादर से ही हम वह कर बैठते हैं जो हमें नहीं करना चाहिये ।

        वास्तव में जो नहीं करना चाहिये उसे करने का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । यह नियम है कि जो नहीं करना चाहिये, वह न करने से जो करना चाहिये, वह स्वत: होने लगता है। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जो नहीं करना चाहिए, उसका न करना ही मानव का परम पुरुषार्थ है और उसी का नाम मानवता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 10-11) ।