Sunday, 4 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 04 August 2013  
(श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        जिस प्रकार प्रकाश अन्धकार को खा लेता है, उसी प्रकार विचार अविचार को खा लेता है । अविचार के मिटते ही अविचार का कार्य अर्थात् 'राग-द्वेष' त्याग और प्रेम में बदल जाता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं रहता ।

        जैसे भूख भोजन को खा लेती है या जिस प्रकार आयु की पूर्णता आयु नहीं बल्कि मृत्यु होती है, उसी प्रकार त्याग और प्रेम की पूर्णता यथार्थ-ज्ञान होता है । यह नियम है कि नित्य-जीवन से भिन्न उत्पन्न होने वाली सभी सत्ताएँ उसी समय तक जीवित रहती हैं, जब तक पूर्ण नहीं होतीं । पूर्ण होने पर उनसे अरुचि होकर स्वाभाविक अभिलाषा जाग्रत हो जाती है ।

        सुख और दुःख दोनों ही अनित्य जीवन की वस्तुएँ हैं । सुख प्राणी को परतन्त्रतारूप सुदृढ़ शृंखला में बाँध लेता है । गहराई से देखिए, ऐसा कोई सुख नहीं होता कि जिसका जन्म किसी के दुःख से न हो । इस दृष्टि से सभी सुखी दुखियों के ऋणी हैं, क्योंकि सुख दुखियों की दी हुई वस्तु है । यदि हम सुखी प्राणी दुखियों की दी हुई वस्तु  दुखियों को सम्मानपूर्वक भेंट न करेंगे तो हम दुखियों के ऋण से मुक्त नहीं हो सकते । भला, कहीं ऋणी प्राणी को शक्ति तथा शान्ति मिल सकती है ? कदापि नहीं।

        जब हम विचार करते हैं, तो हमको यही ज्ञात होता है कि हमको सुख भी दुखियों की कृपा से मिला था और सुख के बन्धन से हम दुखियों की सेवा से ही छुटकारा पा सकते हैं । इस दृष्टि से दुःखी हमारे लिए परम आदरणीय हैं । यदि कोई यह कहे कि सुख तो हमारे कर्म का फल है, तो भला बताओ तो सही कि आप जिस अंश में किसी दूसरे को दुःखी नहीं पाते, क्या उस अंश में आप सुख का अनुभव करते हैं ? कदापि नहीं

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 26) ।