Saturday 13 April 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 13 April 2013  
(चैत्र शुक्ल तृतीया, वि.सं.-2070, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

       कामनाओं की निवृति में आनन्दघन नित्य-जीवन का अनुभव होता है। कामनाओं की पूर्ति कर्म अर्थात् संगठन से होती है और कामनाओं की निवृति यथार्थ ज्ञान अर्थात् तत्व-ज्ञान से होती है, क्योंकि कामनाओं की उत्पत्ति का मूल कारण अज्ञान अर्थात् ज्ञान की कमी है । पूर्ति और निवृति में यही भेद है कि पूर्ति से कामनाओं की पुनः उत्पत्ति होती है, पर निवृति से नहीं । यथार्थ ज्ञान त्याग और प्रेम से होता है । दुखी प्राणी में त्याग और प्रेम विचार से और सुखी प्राणी में त्याग और प्रेम सेवा से होते हैं, क्योंकि जो स्वयं दुखी है, वह सेवा नहीं कर सकता, किन्तु विचार कर सकता है। बेचारे सुखी प्राणी में सुखास्क्ति के कारण विचार का उदय नहीं होता, प्रत्युत वह सेवा कर सकता है ।

        कर्म देहाभिमान को जाग्रत करता है और सेवा स्वाभिमान को । देहाभिमान अनित्य जीवन की ओर, और स्वाभिमान नित्य-जीवन की ओर ले जाता है । बड़े से बड़ा कर्म भी छोटी से छोटी सेवा के समान नहीं हो सकता, क्योंकि बेचारा कर्माभिमानी तो सर्वदा फल के लिए दीन रहता है । प्रत्येक कर्म सीमित अहंभाव की पुष्टि के लिए होता है, क्योंकि कर्म के आरम्भ में कर्ता जिस अहंता को स्वीकार करता है, कर्म अन्त में उसी अहंता को सिद्ध करता है । मानी हुई सभी अहंताएँ सीमित तथा परिवर्तनशील होती हैं । अतः इस दृष्टि से बेचारे कर्म का फल अनित्य ही होता है ।

        सेवा विश्व की पूर्ति के भाव से होती है । यह नियम है कि जो क्रिया दूसरों की पूर्ति के भाव से की जाती है, उसका राग कर्ता पर अंकित नहीं होता; और जिस क्रिया का राग कर्ता पर अंकित नहीं होता, उसकी कामना नहीं होती । अतः 'सेवा' त्याग और प्रेम को उत्पन्न करने में समर्थ है । कर्माभिमानी में सर्वदा कामनाएँ निवास करती हैं । बेचारा कामना-युक्त प्राणी विषयों के दासत्व से छुटकारा नहीं पाता । सेवक में सर्वदा ऐश्वर्य तथा माधुर्य निवास करते हैं, क्योंकि ऐश्वर्य तथा माधुर्य के बिना सेवा हो ही नहीं सकती । ऐश्वर्य तथा माधुर्य सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्दघन भगवान् का स्वरूप है । ज्यों-ज्यों  सेवा-भाव सबल होता जाता है, त्यों-त्यों विलासिता मिटती जाती है, त्यों-त्यों ऐश्वर्य-माधुर्य का प्राकट्य होता जाता है । फिर किसी प्रकार की कमी शेष नहीं रहती अर्थात् दुःख की अत्यन्त निवृति होकर, परम् पवित्र आनन्दघन नित्य-जीवन का अनुभव होता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 24-26) ।