Monday, 5 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 05 August 2013  
(श्रावण कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        गहराई से देखिए, कर्म से उत्पन होने वाली प्रत्येक परिस्थिति तथा अवस्था दुःखमय व अपूर्ण है । उस दुःखमय अवस्था में भी आप अपने से अधिक दुखियों को देखकर सुख का रस ले लेते हैं । तो भला बताओ, वह सुख आपके कर्म का फल हुआ अथवा दुखियों का दिया हुआ प्रसाद ?

        हम परम प्रिय दुखियों की सत्ता से ही सुखरूप थकावट का रस ले लेते हैं । क्या हम अपनी दृष्टि में तब तक ईमानदार हो सकते हैं, जब तक परम प्रिय दुखियों को न अपना लें ? कदापि नहीं । सुख की सार्थकता यही है कि दुखियों के काम आ जाएँ। क्या यही हमारी योग्यता है कि जिन सुखियों से हम दुःखी होते हैं, उनका दासत्व स्वीकार करें और जिन दुखियों की कृपा से सुख तथा आनन्द दोनों ही पाते हैं, उनको तिरस्कार कर अपने को अभिमान की अग्नि में जलाएँ ? हमारी इस योग्यता को अनेक बार धिक्कार है !

        हम अपनी निर्बलता छिपाने के लिए बेचारे दुःखी प्राणियों पर पशुबल से शासन करते हैं और अपने से अधिक शक्तिशालियों का दासत्व स्वीकार करते हैं । हमारा पशुबल न तो हमारी निर्बलता को ही छिपा सकता है और न दुखियों को छिन्न-भिन्न कर सकता है, क्योंकि जिस निर्बलता को हम अपने से ही नहीं छिपा सकते, भला उसे विश्व से कैसे छिपा सकते हैं? जैसे पृथ्वी में छिपा हुआ बीज बृहत् रूप धारण कर लेता है । वैसे ही हममें छिपी हुई बुराई बृहत् रूप धारण कर लेती है ।

        निर्बलता मिटाई तो जा सकती है, परन्तु छिपाई नहीं जा सकती । दुखियों के शरीर आदि वस्तुओं को 'छिन्न-भिन्न कर देने से उनका अन्त नहीं हो जाता, क्योंकि सूक्ष्म तथा कारण शरीर शेष रहते हैं । यदि हम किसी के स्थूल शरीर को नष्ट भी कर दें, तो भी वह प्राणी जिस भाव को लेकर स्थूल शरीर का त्याग करता है, उसी भावना के अनुरूप प्रकृति माता से अथवा यों कहो कि जगत्-कारण से शक्ति संचय कर, हमसे अधिक शक्तिशाली हो, हमारा विरोध करने के लिए हमारे सामने आ जाता है । अत: हम पशुबल से दुखियों को छिन्न-भिन्न भी नहीं कर सकते और न अपनी निर्बलता को छिपा या मिटा सकते हैं। हमारे इस पशुबल को बार-बार धिक्कार है !

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 27-28) ।