Tuesday, 06 August 2013
(श्रावण अमावस्या, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता
अब विचार यह करना है कि हमारी निर्बलताएँ किस प्रकार मिट सकती हैं । जिस प्रकार बालक के रोने से ही चोर भाग जाता है उसी प्रकार निर्बलता को 'निर्बलता' जानने पर निर्बलता भाग जाती है, क्योंकि वह हममें उसी समय तक निवास करती है, जब तक हम उसे अपनी दृष्टि से देख नहीं पाते। यदि निर्बलता हमारी निज की वस्तु होती; तो उसके मिटाने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । यदि उसके मिटाने का प्रश्न उत्पन्न हो रहा है, तो इससे यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि उससे हमारी जातीय भिन्नता है, एकता नहीं है । एकता तो केवल प्रमादवश स्वीकार कर ली गई है । यह स्वीकृति कब से है और क्यों है, इसका कुछ पता नहीं । परन्तु जिससे जातीय भिन्नता है, उसका अन्त हम अवश्य कर सकते हैं ।
सभी अस्वाभाविक संयोग, जो केवल स्वीकृति से जीवित हैं, निरन्तर स्वाभाविक वियोग की अग्नि में जल रहे हैं । यदि हम संयोग-काल में ही वियोग का अनुभव कर ले, तो संयोग से उत्पन्न होने वाला रस हम पर अपना अधिकार न कर सकेगा। उसके अधिकार न करने से भोगत्व नष्ट हो जाएगा और हमें स्वाभाविक नित्य-योग प्राप्त हो जाएगा । शक्ति-संचय करने के लिए योग कल्पतरु के समान है । यदि सब प्रकार की निर्बलताओं का अन्त करने के लिए सद्भावपूर्वक हमारी अभिलाषा उत्पन्न हो गई है, तो हमको अपने प्रेमपात्र निज-स्वरूप से योग द्वारा वह शक्ति अवश्य मिल जाएगी जिससे सभी निर्बलताओं का नितान्त अन्त हो जाएगा ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 28) ।