Wednesday 7 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 07 August 2013  
(श्रावण शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        भोग से अरुचि होने पर योग और भोग का अन्त होने पर तत्व-ज्ञान अर्थात् नित्य-जीवन का अनुभव होता है। 'योग' स्थिति है, 'ज्ञान' स्वरूप है । स्थिति का उत्थान होता है, पर स्वरूप का उत्थान नहीं होता । निर्विकल्प-स्थिति आदि सभी अवस्थाएँ हैं । हाँ, 'निर्विकल्प-स्थिति' जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं सविकल्प-स्थिति आदि सभी अवस्थाओं से श्रेष्ठ अवश्य है । परन्तु निर्विकल्प-ज्ञान होने पर हम अपने में किसी प्रकार का अवस्था-भेद नहीं पाते अर्थात् सभी अवस्थाओं से अतीत हो जाते हैं । निर्विकल्प ज्ञान स्वरूप है और निर्विकल्प-स्थिति अवस्था है । स्वरूप का उत्थान नहीं होता, क्योंकि तीनों प्रकार के शरीरों-स्थूल, सूक्ष्म, कारण - से पूर्ण असंगता होने पर स्वरूप-ज्ञान होता है । निर्विकल्प-स्थिति में कारण शरीर से लेशमात्र सम्बन्ध रहता है, इसी कारण दीर्घकाल समाधिस्थ रहने पर भी उत्थान सम्भव है ।

        यह नियम है कि अवस्थाओं से सम्बन्ध बने रहने पर किसी प्रकार भी सीमित अहंभाव का अन्त नहीं होता, जो निर्बलता, परतन्त्रता आदि सभी दोषों का मूल है । विचार-दृष्टि से देखने पर यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि बड़ी से बड़ी अवस्था भी किसी अवस्था की अपेक्षा ही श्रेष्ठ होती है । अवस्था-भेद मिटते ही हम नित्य-जीवन एवं नित्य-जागृति का अनुभव कर अमरत्व को प्राप्त होते हैं अर्थात् हम अपने परम प्रेमास्पद को अपने से भिन्न नहीं पाते; वियोग का भय लेशमात्र भी नहीं रहता । विश्व केवल हमारी एक अवस्था के सिवाय और कुछ अर्थ नहीं रखता । अत: विश्व तथा विश्वनाथ दोनों को हम अपने में ही पाते हैं ।

ओ३म् आनन्द ! आनन्द !! आनन्द !!!

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 29) ।