Thursday, 08 August 2013
(श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)
शरणागति-तत्त्व
'शरण' सफलता की कुन्जी है, निर्बल का बल है, साधक का जीवन है, प्रेमी का अन्तिम प्रयोग है, भक्त का महामन्त्र है, आस्तिक का अचूक अस्त्र है, दुःखी की दवा है, पतित की पुकार है । वह निर्बल को बल, साधक को सिद्धि, प्रेमी को प्रेमपात्र, भक्त को भगवान्, आस्तिक को अस्ति, दुःखी को आनन्द, पतित को पवित्रता, भोगी को योग, परतन्त्र को स्वातन्त्र्य, बद्ध को मुक्ति, नीरस को सरसता और मर्त्य को अमरता प्रदान करती है ।
प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी के शरणापन्न रहता है, अन्तर केवल इतना है कि आस्तिक एक के और नास्तिक अनेक के । आस्तिक आवश्यकता की पूर्ति करता है और नास्तिक इच्छाओं की । आवश्यकता एक और इच्छाएँ अनेक होती हैं। आवश्यकता की पूर्ति होने पर पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इच्छाओं की पूर्ति होने पर पुन: उत्पत्ति होती है । इच्छाकर्ता बेचारा तो प्रवृत्ति द्वारा केवल शक्तिहीनता ही प्राप्त करता है । अत: 'शरणागत' शरण्य की शरण हो, इच्छाओं की निवृत्ति एवं आवश्यकता की पूर्ति कर कृतकृत्य हो जाता है ।
आवश्यकता उसी की होती है, जिसकी सत्ता है और इच्छा का जन्म प्रमादवश आसक्ति से होता है, इसी कारण उसकी निवृत्ति होती है, पूर्ति नहीं होती । साधारण प्राणी इच्छा और आवश्यकता में भेद नहीं जानते । परन्तु विचारशील जब अपने जीवन का अध्ययन करता है, तब उसे इच्छा और आवश्यकता में भेद स्पष्ट प्रत्यक्ष हो जाता है । यदि आवश्यकता और इच्छा में भेद न होता, तो आस्तिकता उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इच्छायुक्त प्राणी विषय-सत्ता से भिन्न कुछ नहीं जानता ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 30) ।