Monday, 26 August 2013
(भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग
परिस्थिति का सदुपयोग करने के लिए कर्ता को कार्य-कुशलता, भाव की पवित्रता एवं लक्ष्य पर दृष्टि रखना परम् अनिवार्य है। कार्य-कुशलता के लिए ईमानदारी, योग्यता एवं परिश्रमी होना आवश्यक है । ईमानदारी आने पर उन सभी प्रवृत्तियों का अन्त हो जाता है, जिनसे कर्ता तथा अन्य प्राणियों का अहित होता है, अर्थात् अहितकारी चेष्टाएँ मिट जाती हैं । अहितकारी चेष्टाओं की उत्पत्ति तब होती है, जब हम अपने ज्ञान के अनुरूप चेष्टा नहीं करते अर्थात् अपनी अनुभूति का निरादर करते हैं । भाव की पवित्रता का अर्थ केवल इतना ही है कि कर्ता में किसी के अहित का भाव न हो, प्रत्युत् सर्वहितकारी भाव हो । लक्ष्य पर दृष्टि रखने का अर्थ केवल इतना ही है कि कर्ता को अपनी स्वाभाविक आवश्यकता की पूर्ति एवं भोग-वासनाओं की निवृत्ति पर दृष्टि रखनी चाहिए।
प्रत्येक कर्ता में क्रियाशक्ति, राग तथा संस्कृति-जन्य स्वीकृति विद्यमान है । केवल क्रियाशक्ति यन्त्र के समान है। वह स्वरूप से उन्नति तथा अवनति का हेतु नहीं है । जब प्राणी क्रियाशक्ति का उपयोग राग की पूर्ति अर्थात् भोग के लिए करता है, तब उन्नति रुक जाती है और जब वह राग के यथार्थ ज्ञान के लिए संस्कृति-जन्य स्वीकृति के अनुरूप क्रियाशक्ति का उपयोग करता है, तब उसकी स्वत: उन्नति होने लगती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृत्ति करने पर केवल क्रिया-जन्य रस ही नहीं आता प्रत्युत् भाव-जन्य रस भी आता है, परन्तु इन्द्रिय-जन्य स्वभाव के अनुरूप प्रवृत्ति करने पर केवल क्रिया-जन्य रस आता है, जो मानवता के विरुद्ध है ।
स्वीकृति का सद्भाव क्रिया-जन्य रस को भाव-जन्य रस में विलीन कर देता है । भाव-जन्य रस ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों स्वार्थ-भाव अर्थात् भोग की वासना या इन्द्रिय-जन्य स्वभाव की आसक्ति स्वत: गलती जाती है । ज्यों-ज्यों भोग की वासना गलती जाती है, त्यों-त्यों सेवा का भाव स्वत: उत्पन्न होता जाता है । सेवा-भाव आ जाने पर संस्कारों की दासता मिट जाती है अर्थात् सेवक की अहंता में से यह भाव समूल नष्ट हो जाता है कि 'संसार मेरे काम आ जाए;' प्रत्युत् यह भाव कि ' मैं संसार के काम आऊँ', सतत जाग्रत रहता है । ज्यों-ज्यों संसार के काम न आने का दुःख बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों प्राकृतिक विधान (Natural Law) के अनुसार आवश्यक शक्ति का विकास सेवक के जीवन में स्वत: होता जाता है, किन्तु सेवक उस शक्ति का स्वयं भोग नहीं करता प्रत्युत् उसको बाँट देता है । इतना ही नहीं, वह अपने को बाँटने के रस में भी आबद्ध नहीं होने देता । जब सेवक किसी प्रकार का वह रस, जो किसी के संयोग या प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है, नहीं लेता तब उसमें नित्य-रस स्वयं आ जाता है। नित्य-रस आते ही सेवक में सेवक-भाव शेष नहीं रहता, किन्तु जिस प्रकार सूर्य से प्रकाश स्वत: फैलता है, उसी प्रकार सेवक-भाव न रहने पर भी सेवा स्वत: होती रहती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 44-46) ।