Sunday, 25 August 2013
(भाद्रपद कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग
'विश्व' कर्ता के सामने अनेक प्रकार की स्वीकृतियों के रंग भेंट करता है, किन्तु कर्ता अपनी रुचि तथा विश्वास के अनुसार विश्व की दी हुई भेंट को स्वीकार करता है। साधारण दृष्टि से तो स्वीकृति ही कर्ता की सत्ता प्रतीत होती है, किन्तु स्वीकृति को परिवर्तित कर लेने पर, वह निर्जीव यन्त्र के समान जान पडती है और कर्ता उससे अतीत प्रतीत होता है। अत: कर्ता जिस प्रकार की स्वीकृति स्वीकार कर लेता है, उसी प्रकार की प्रवृत्ति में प्रवृत्त हो जाता है ।
कर्ता शरीर-भाव के सम्बन्ध से अपने में भोग-वासनाओं को पाता है, किन्तु फिर भी उसमें नित्य-जीवन तथा नित्य-रस की आवश्यकता विद्यमान रहती है । भोग-वासनाएँ नित्य-जीवन तथा नित्य-रस की आवश्यकता को ढक लेती हैं, मिटा नहीं पातीं। वियोग के भय से तथा कमी के अनुभव एवं दुःख से जब कर्ता को भोग-प्रवृत्ति की अपूर्णता का बोध होता है, तब स्वाभाविक आवश्यकता जाग्रत होने लगती है । इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सभी परिस्थितियाँ असमर्थ हैं, किन्तु वे साधनमात्र अवश्य हैं। परिस्थिति बेचारी यन्त्रवत् है, उसका सदुपयोग करने पर प्रत्येक परिस्थिति सहायक मित्र है । विचारशील को न तो परिस्थिति की दासता स्वीकार करनी चाहिए और न उससे शत्रुता । दासता नित्य-जीवन की आवश्यकता नहीं जाग्रत होने देती और शत्रुता सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होने देती, इस कारण विचारशील को केवल परिस्थिति का सदुपयोग ही करना है । यह अखण्ड सत्य है कि परिस्थिति का सदुपयोग करने पर परिस्थिति स्वयं मिट जाती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 44) ।