Saturday, 24 August 2013
(भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग
प्रत्येक परिस्थिति की उत्पत्ति कर्म से होती है और कर्म कर्ता के अनुरूप होता है अर्थात् कर्ता स्वयं कर्म के स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है; परन्तु साधारण दृष्टि से कर्ता और कर्म में भेद प्रतीत होता है । वास्तव में तो कर्ता का विकसित स्वरूप ही कर्म है । जिस प्रकार सूर्य का विकसित स्वरूप किरण तथा धूप आदि हैं, उसी प्रकार क्रिया और फल प्रवृत्ति- कर्ता के विकसित स्वरूप हैं ।
कर्म का प्रत्येक साधन कर्ता के पश्चात् उत्पन्न होता है अर्थात् कर्म से कर्ता की उत्पत्ति नहीं होती, प्रत्युत् कर्ता से कर्म की उत्पत्ति होती है । यद्यपि कर्म कर्ता से उत्पन्न हो, उसकी असावधानी के कारण कभी-कभी उसी पर ही शासन करने लगता है । परन्तु यह अवश्य है कि कर्ता से कर्म की उत्पत्ति होने पर भी कर्ता कर्म से अतीत ही रहता है । कर्म कर्ता के बिना नहीं रह सकता, किन्तु कर्ता कर्म के बिना भी रह सकता है । जिस प्रकार नेत्र के बिना देखने की क्रिया नहीं हो सकती, देखने की क्रिया नेत्र के आश्रित रहती है; किन्तु नेत्र स्वतन्त्र हैं न देखने के लिए भी, क्योंकि देखने की क्रिया न होने पर भी नेत्र अपने को नेत्र के स्वरूप में जीवित रखता है अर्थात् देखने, न देखने में नेत्र अपने को स्वतन्त्र पाता है । इसी प्रकार कर्ता अपने को करने तथा न करने में स्वतन्त्र पाता है । मूल रूप से कर्ता सफेद वस्त्र के समान है, किन्तु जिस रंग में उसको रंग दिया जाता है, उसी रंग को वह प्रकाशित करने लगता है । रंग के स्वीकार करने में कर्ता स्वतन्त्र है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 43-44) ।