Friday, 23 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 23 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        सुख-दु:ख का  दुरुपयोग ही पतन का कारण है, जो प्राणी की अपनी बनाई हुई वस्तु है। जब हम अपने को अपने दोष का कारण नहीं मानते, तब हमको अपनी दृष्टि से अपने दोष नहीं दिखाई देते । ऐसी अवस्था में हम उन्नति से निराश होने लगते हैं । हम समझने लगते हैं कि हमको तो पतन के लिए ही उत्पन्न क्रिया गया है। हमारी परिस्थिति प्रतिकूल है, हम उन्नति में असमर्थ हैं । प्यारे ! गम्भीरतापूर्वक देखिए, प्रत्येक परिस्थिति विश्व का अंगमात्र है। कोई भी अंगी अपने अंग का पतन नहीं करता, प्रत्युत् सुधार करता है; जिस प्रकार माँ शिशु के हित के लिए शिशु के दूषित अङ्ग को चिरवा देती है । माँ के हृदय में शिशु के प्रति अगाध प्यार है, किन्तु शिशु वर्तमान पीड़ा को देख कर, माँ का अन्याय देखने लगता है । बस इसी प्रकार हम सुख का वियोग तथा दुःख का संयोग होने पर प्राकृतिक विधान को अन्यायपूर्ण तथा कठोर समझने लगते हैं । यह हमारी शिशु के समान बाल-बुद्धि का प्रभाव है और कुछ नहीं ।

        प्राकृतिक विधान को न्यायपूर्ण स्वीकार करते ही, प्राणी वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग करने लगता है । ज्यों-ज्यों सदुपयोग की भावना दृढ़ हो जाती है, त्यों-त्यों प्रतिकूलता अनुकूलता में स्वत: परिवर्तित होती जाती है । जिस प्रकार कटु औषधि का सेवन करने पर, ज्यों-ज्यों रोग निवृत्त होता जाता है, त्यों-त्यों रोगी को औषधि के प्रति प्रियता उत्पन्न होती जाती है अर्थात् कटु औषधि मधुर से भी अधिक मधुर प्रतीत होने लगती है। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के सदुपयोग करने पर प्रतिकूलता अनुकूलता से भी अधिक अनुकूल मालूम होने लगती है। इस दृष्टि से केवल परिस्थिति का दुरुपयोग करना ही प्रतिकूलता है । परिस्थिति वास्तव में प्रतिकूल नहीं होती। इसका अर्थ यह नहीं है कि परिस्थिति जीवन है अथवा परिस्थिति को ही सुरक्षित रखना है अथवा उससे ऊपर नहीं उठना है । प्यारे! परिस्थिति जल-प्रवाह के समान बिना ही प्रयत्न निरन्तर परिवर्तित हो रही है । हमें तो उसका सदुपयोग कर उससे अतीत अपने प्रेमपात्र की ओर जाना है । 

        इस दृष्टि से प्रत्येक परिस्थिति हमारे मार्ग का स्थान है अथवा खेलने का मैदान है । कोई भी विचारशील खेलने के मैदान में तथा मार्ग के स्थान में सर्वदा रहने का प्रयत्न नहीं करता, क्योंकि खेलना मन में छिपी हुई आसक्ति का यथार्थ ज्ञान कराने का साधन है और मार्ग प्रेमपात्र तक पहुँचने का साधन है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 42-43) ।