Thursday 22 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 22 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

परिस्थिति का सदुपयोग

        परिवर्तनशील सीमित सौन्दर्य में सन्तुष्ट होने का स्वभाव 'काम' उत्पन्न करता है । काम के उत्पन्न होते ही प्राणी अपने को किसी न किसी सीमित स्वीकृति में आबद्ध कर लेता है। सीमित स्वीकृति में आबद्ध होते ही स्वीकृति के अनुरूप अनेक संकल्प होने लगते हैं । संकल्प उत्पन्न होते ही इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति होने लगती है । यद्यपि इन्द्रियों की प्रवृत्ति के अन्त में शक्तिहीनता से भिन्न कुछ नहीं मिलता, परन्तु प्रवृत्ति की प्रतीति एवं प्रवृत्ति-जन्य रस की अनुभूति की प्रतीति अवश्य होती है । बस, उसी प्रतीति का नाम परिस्थिति है ।

        वर्तमान परिवर्तनशील जीवन नित्य-जीवन का साधन है। इस दृष्टि से प्रत्येक प्राणी उन्नति के लिए सर्वदा स्वतन्त्र है। विधाता का विधान (Natural Law) न्यायपूर्ण है । प्रत्येक परिस्थिति किसी अन्य परिस्थिति की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा अश्रेष्ठ देखने में आती है । वास्तव में तो सभी परिस्थितियाँ स्वरूप से अपूर्ण हैं । यह नियम है कि अपूर्णता प्राणी को स्वभाव से ही अप्रिय है । इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि परिस्थिति प्राणी का जीवन नहीं है, प्रत्युत् वास्तविक नित्य-जीवन का साधनमात्र है । साधन में साध्य-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद है । साधन का तिरस्कार करना, उसको अपने पतन का कारण मान लेना अथवा उससे हार स्वीकार करना, साधक की असावधानी और भूल ही है ।

        प्राकृतिक विधान प्रेम तथा न्याय का भण्डार है । अत: वह दण्ड नहीं देता, परन्तु उसके सिखाने के अनेक ढंग हैं । साधारण प्राणी परिस्थिति-मात्र में जीवन-बुद्धि स्थापित कर प्राकृतिक विधान को दण्ड मान लेते हैं । प्रत्येक परिस्थिति का अर्थ सुख तथा दुःख है । प्रत्येक प्राणी सुख तथा दुःख के बन्धन में ही अपने को बाँध लेता है । किन्तु स्वाभाविक रुचि आनन्द की होती है । आनन्द तथा आनन्द के अभिलाषी प्राणी के बीच में सुख तथा दुःख का ही पर्दा है । सुख-दुःख का सदुपयोग करने पर सुख-दुःख नहीं रहता । अत: इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि परिस्थिति अर्थात् सुख-दुःख न तो प्राणी का जीवन है और न पतन का कारण है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 41-42) ।