Wednesday 21 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 21 August 2013  
(श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        अब विचार केवल यह करना है कि शरणागत होने का अधिकार कब प्राप्त होता है ? जब प्राणी अपनी सीमित शक्तियों का जो अनन्त से प्राप्त है, सदुपयोग कर लेता है और अपने लक्ष्य से निराश नहीं होता, ऐसी दशा में शरणागत होने का भाव स्वत: उत्पन्न होता है । जिस प्रकार बालक जब अपनी इच्छित वस्तु को अपने बल से नहीं पा सकता, तब विकल हो माँ की ओर देखकर रोने लगता है, बस उसी काल में, माँ अपने ऐश्वर्य एवं माधुर्य से बच्चे की इच्छित वस्तु प्रदान करती है; उसी प्रकार हमें यही करना है कि बालक की भाँति अपनी सारी प्राप्त शक्ति का पवित्रतापूर्वक ईमानदारी से सदुपयोग करें और लक्ष्य से निराश न हों, प्रत्युत् अपनी अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न नित्य-सत्ता के शरणापन्न हो जाएँ। ऐसा करते ही प्राणी अपने उस स्वभावानुसार कि जिसे मिटाने में वह असमर्थ है, विधान के अनरूप विकास पा जाएगा ।

        यह अखण्ड सत्य है कि जब तक हम अपने आपको सीमित विकास से सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते रहेंगे, तब तक असीम शक्ति उस विकास का यथार्थ जान कराने के लिए उसका ह्रास करती रहेगी, क्योंकि वह हमारी अपने से किसी भी प्रकार भी भिन्नता सहन नहीं कर सकती । हमको उस असीम सत्ता का असीम प्यार देखना चाहिए, जो हमारे बिना किसी प्रकार नहीं रह सकती । यह कैसा वैचित्र्य है कि जो विषय-सत्ता हमारा निरन्तर तिरस्कार कर रही है, हम प्रमादवश उसी की ओर दौड़ते रहते हैं और जो असीम-सत्ता निरन्तर प्रेमपूर्वक हमें अपनाने का प्रयत्न करती है, हम उससे विमुख रहते हैं ! विचारशील प्राणी को इस प्रमाद-युक्त प्रगति का नितान्त अन्त कर देना चाहिए, जो शरणागति-भाव से स्वतन्त्रतापूर्वक हो सकता है । 

        अपनी न्यूनता का अनुभव करना तथा उसे मिटाने का प्रयत्न करना  'मानवता' है । जो अपनी न्यूनता का अनुभव नहीं करता, वह मानव नहीं और जो अनुभव कर उसे मिटाने का प्रयत्न नहीं करता, वह भी मानव नहीं एवं जिसमें किसी भी प्रकार की न्यूनता नहीं है, वह भी मानव नहीं । अर्थात् न्यूनता होते हुए चैन से न रहना ही मानवता है । इसी कारण मानवता में उपार्जन के अतिरिक्त उपभोग के लिए कोई भी स्थान नहीं है। उपार्जन ही मानव-जीवन का सदुपयोग है । उस मानव-जीवन की सार्थकता के लिए शरण्य के शरणापन्न होना परम अनिवार्य है, क्योंकि ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो शरणागत होने से न मिट जाए अर्थात् स्वभावानुसार विकास तथा नित्य-जीवन शरण्य के शरणागत होते ही सुलभ हो जाता है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि 'शरण' सफलता की कुन्जी है ।

- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 39-40) ।