Friday, 16 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 16 August 2013  
(श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        भिन्नता 'द्वेष' और एकता 'प्रेम' है । ऐसा कोई दोष नहीं है, जो भिन्नता से उत्पन्न न हो । ऐसा कोई गुण नहीं है, जो एकता से उत्पन्न न हो अर्थात् सभी दोषों का कारण भिन्नता एवं सद्गुणों का कारण एकता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रवृत्ति भी सीमित अहंता के बिना नहीं हो सकती, परन्तु शरणापन्न होते ही प्रवृत्ति की आवश्यकता शेष नहीं रहती; अत: प्रवृत्ति निःशेष हो जाती है । प्रवृत्ति का अभाव होते ही सीमित अहंता उसी प्रकार गल जाती है, जिस प्रकार सूर्य की उष्णता से बर्फ गल जाती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि शरणागत होने के अतिरिक्त कोई भी ऐसा उपाय नहीं है, जिससे भिन्नता का नितान्त अन्त हो जाए । 

        शरणागत होने का वही अधिकारी है, जो वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर अपने लिए नित्य-जीवन एवं नित्य-रस की आवश्यकता का अनुभव करता है । जो प्राणी प्रतिकूल परिस्थिति के साथ-साथ अपना भी मूल्य घटाता जाता है तथा अनुकूल परिस्थिति की आसक्ति में फँसता जाता है; एवं जो परिस्थिति से हार स्वीकार करता है तथा लक्ष्य से निराश हो जाता है, वह न तो आस्तिक हो सकता है और न शरणागत ।

        स्वीकृतिमात्र को ही अपने को आप समझ लेना, तात्विक दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है । प्रेमपात्र में अपूर्णता का भास अथवा अपने स्वीकृत भाव में विकल्प का होना आस्तिक-दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृत्ति का न होना अथवा किसी भी वस्तु अवस्था एवं परिस्थिति की ओर आकृष्ट होना अथवा ऐसी प्रवृत्ति करना, जो किसी की पूर्ति का साधन न हो, व्यावहारिक दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है ।

        यद्यपि शरण निर्बल का बल है, परन्तु जो प्राणी हार स्वीकार कर लेता है, उसके लिए शरण असम्भव हो जाता है। निर्बल के बल का अर्थ केवल इतना ही है कि शरणागत बिना किसी अन्य की सहायता के स्वयं केवल शरणागति-भाव से ही सफलता प्राप्त करता है । भाव करने में प्रत्येक प्राणी सर्वदा स्वतन्त्र है । जब शरणागत होने पर अहंता परिवर्तित हो जाती है, तब शरणागत का मूल्य संसार से बढ़ जाता है अर्थात् वह अपनी प्रसन्नता के लिए संगठन की ओर नहीं देखता । बस, उसी काल में शरणागत के जीवन में निर्वासना, निर्वैरता, निर्भयता, समता, मुदिता आदि सद्गुण स्वत: उत्पन्न होने लगते हैं । शरणागत किसी भी गुण को निमन्त्रण देकर बुलाता नहीं है और न सीखने का ही प्रयत्न करता है । अत: इस दृष्टि से अनेक विभागों में विभाजित अहंता को 'मैं उनका हूँ’, इस भाव में विलीन करना परम अनिवार्य है, जो शरणागति- भाव से सुगमतापूर्वक अपने-आप हो जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 38-39) ।