Thursday, 15 August 2013
(श्रावण शुक्ल नवमीं, स्वतन्त्रता-दिवस, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व
विचार दृष्टि से यह भली-भाँति सिद्ध होता है कि अहंता के अनुरूप ही प्रवृत्ति होती है । पतित से पतित अहंता भी शरणागत होते ही परिवर्तित हो जाती है । अहंता परिवर्तित होते ही अहंता में जो दोषयुक्त संस्कार अंकित थे, वे मिट जाते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के बिना बीज का उपजना असम्भव है, उसी प्रकार दोषयुक्त अहंता के बिना दोषयुक्त संस्कारों का उपजना असम्भव है । अत: यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि पतित से पतित प्राणी भी शरणागत होते ही पवित्र हो जाता है । जिस भाँति मिट्टी कुम्हार की शरणागत होकर कुम्हार की ही योग्यता और बल से कुम्हार के काम आती है और कुम्हार का प्यार पाती है, उसी भाँति शरणागत शरण्य के ही अनन्त
ऐश्वर्य एवं माधुर्य से शरण्य के काम आता है एवं उसका प्यार पाता है । यह नियम है कि जो जिसके काम आता है, वह उसका प्रेमपात्र हो जाता है । अत: इसी नियमानुसार शरणागत शरण्य का शरण्य हो जाता है । भला इससे अधिक सुगम एवं स्वतन्त्र कौन-सा मार्ग है, जो स्वतन्त्रतापूर्वक साधक को शरण्य का शरण्य बना देता है ?
शरणागत में किसी भी प्रकार का अभिमान शेष नहीं रहता है । दीनता का अभिमान भी अभिमान है । शरणागत दीन नहीं होता क्योंकि उसका शरण्य से पूर्ण अपनत्व होता है । अपनत्व और दासता में भेद है । दासता बन्धन का कारण है और अपनत्व स्वतन्त्रता का कारण है । अपनत्व होने से भिन्नता का भाव मिट जाता है । भिन्नता मिटते ही स्वतन्त्रता अपने-आप आ जाती है। भिन्नता का भाव उत्पन्न होने पर ही प्राणी में किसी न किसी प्रकार का अभिमान उत्पन्न होता है । शरणापन्न होने पर अभिमान गल जाता है । अभिमान गलते ही भिन्नता एकता में विलीन हो जाती है । एकता होने पर भय शेष नहीं रहता । अत: शरणागत सब प्रकार से अभय हो जाता है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 37) ।