Wednesday, 14 August 2013
(श्रावण शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व
शरणागत में मानव-जीवन स्वभावत: उत्पन्न होता है । जब शरणागत शरणापन्न हो जाता है, तब ऋषि-जीवन का अनुभव कर, अपने ही में अपने शरण्य को पाता है । शरणागत और शरणापन्न में अन्तर केवल यही है कि शरणागत शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है और शरणापन्न प्रेम का आस्वादन करता है ।
शरणागति अभ्यास नहीं है, प्रत्युत् सद्भाव है । शरणागति भाव का सद्भाव होने पर प्राणी का समस्त जीवन शरणागतिमय हो जाता है अर्थात् शरणागत केवल मित्र के लिए मित्र, पुत्र के लिए पिता, पिता के लिए पुत्र, गुरु के लिए शिष्य, शिष्य के लिए गुरु, पति के लिए पत्नी, पत्नी के लिए पति, समाज के लिए व्यक्ति और देश के लिए ही देशीय होता है । जो-जो व्यक्ति उससे न्यायानुसार जो-जो आशा करता है, उसके प्रति शरणागत वही अभिनय करता है । अपने लिए वह शरण्य से भिन्न और किसी की आशा नहीं करता, अथवा यों कहो कि शरणागत सबके लिए सब कुछ होते हुए भी, अपने लिए शरण्य से भिन्न किसी अन्य की ओर नहीं देखता । जब शरणागत अपने लिए किसी भी व्यक्ति, समाज आदि की अपेक्षा नहीं करता तब अभिनय के अन्त में शरणागत के हृदय में शरण्य के विरह की अग्नि अपने-आप प्रज्वलित हो जाती है ।
अत: शरणागत सब कुछ करते हुए भी शरण्य से विभक्त नहीं होता । गहराई से देखिए, कोई भी ऐसा अभ्यास नहीं है, जिससे साधक विभक्त न हो, क्योंकि संघठन से उत्पन होने वाला अभ्यास किसी भी प्रकार निरन्तर हो ही नहीं सकता। परन्तु शरणागति से परिवर्तित अहंता निरन्तर एकरस रहती है। अन्तर केवल इतना रहता है कि शरणागत कभी तो शरण्य के नाते विश्व की सेवा करता है तथा कभी शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है एवं कभी शरण्य से अभिन्न हो जाता है । वह साधन पूर्ण साधन नहीं हो सकता, जिससे साधक विभक्त हो जाता है, क्योंकि पूर्ण साधन तो वही है, जो साधक को साध्य से विभक्त न होने दे । अत: इस दृष्टि से शरणागति- भाव सर्वोत्कृष्ट साधन है।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 36) ।