Tuesday 13 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 13 August 2013  
(श्रावण शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        जो प्राणी उस अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न नित्य-तत्त्व के शरणापन्न नहीं होते वे बेचारे अनेक वस्तुओं एवं परिस्थितियों के शरणापन्न रहते हैं जैसे, कामी कामिनी के, लोभी धन के, अविवेकी शरीर के; क्योंकि स्वीकृतिमात्र से उत्पन्न होने वाली अहंता अनेक भावों में विभक्त होती रहती है। वह जब-जब जिस-जिस भाव को स्वीकार करती है, तब-तब उसी के शरणापन्न होती है । सत्य के शरणापन्न होने वाला प्राणी अपने को स्वीकृतिजन्य अहंता से मुक्त कर लेता है ।

        शरणागत की अहंता निर्जीव अर्थात् भुने हुए बीज की भाँति केवल प्रतीति मात्र रहती है, क्योंकि उसमें से सीमित भाव एवं स्वीकृति-जन्य सत्ता मिट जाती है । जब प्राणी सीमित भाव एवं स्वीकृति को ही अपनी सत्ता मान बैठता है, तब अनेक प्रकार के विघ्न उत्पन्न हो जाते हैं । गहराई से देखिए, यद्यपि प्रत्येक प्राणी में प्यार उपस्थित है, परन्तु स्वीकृति-मात्र को सत्ता मान लेने से प्यार जैसा अलौकिक तत्व भी सीमित हो जाता है। सीमित प्यार संहार का काम करता है, जो प्यार के नितान्त विपरीत है । जैसे देश के प्यार ने अन्य देशों पर, सम्प्रदाय के प्यार ने अन्य सम्प्रदायों पर, जाति के प्यार ने अन्य जातियों पर अत्याचार किया है जो मानव-जीवन के सर्वथा विरुद्ध है। आस्तिकतापूर्वक शरणागत होने से स्वीकृति-जन्य सत्ता मिट जाती है । स्वीकृति-जन्य सत्ता के मिटते ही सीमित अहंभाव शेष नहीं रहता । सीमित अहंभाव के निःशेष होते ही अलौकिक प्यार विभु हो जाता है, जो वास्तव में मानव-जीवन है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 35) ।