Monday, 12 August 2013
(श्रावण शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व
प्राणी की स्वाभाविक प्रगति अपने केन्द्र के शरणापन्न होने की है । अब विचार यह करना है कि हमारा केन्द्र क्या है ? केन्द्र वही हो सकता है कि जिसकी आवश्यकता हो । आवश्यकता नित्य-जीवन, नित्य-रस एवं सब प्रकार से पूर्ण और स्वतन्त्र होने की है । अत: हमारा केन्द्र वही हो सकता है, जो सब प्रकार से पूर्ण एवं स्वतन्त्र हो । हमें उसी के शरणापन्न होना है ।
हम सबसे भारी भूल यही करते हैं कि अपने केन्द्र तक पहुँचने के पूर्व मार्ग में अनेक इच्छाओं की पहाड़ियाँ स्थापित कर, स्वाभाविक प्रगति को रोक देते हैं; यद्यपि अनन्त शक्ति उन पहाड़ियों को उसी प्रकार प्यारपूर्वक छिन्न-भिन्न करने का निरन्तर प्रयत्न करती है, जैसे माँ बालक को सिखाने का प्रयत्न करती है ।
हम उस अनन्त शक्ति का विरोध करने का विफल प्रयास क़रते रहते हैं, यह परम भूल है । महामाता प्रकृति हमको निरन्तर यह पाठ पढ़ा रही है कि सीमित सत्ता अनन्तता के शरणापन्न होती है; जिस प्रकार नदी समुद्र की ओर और बीज वृक्ष की ओर निरन्तर प्रगतिशील है । कोई भी वस्तु एवं अवस्था ऐसी नहीं है, जो निरन्तर परिवर्तन न कर रही हो, मानो हमें सिखा रही हो कि हमको किसी भी सीमित भाव में आबद्ध नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत् अपने परम स्वतन्त्र केन्द्र की ओर प्रगतिशील होना चाहिए, जो शरणागत होने पर सुगमतापूर्वक हो सकता है ।
यह अखण्ड नियम है कि कोई भी भाव तब तक सजीव नहीं होता, जब तक कि वह विकल्प-रहित न हो जाए । जिस प्रकार बोए हुए बीज को किसान बोकर विकल्परहित हो जाता है, अर्थात् बीज को बार-बार निकाल कर देखता नहीं है और न सन्देह करता है, तब बीज पृथ्वी से घुल-मिलकर अपने स्वभावानुसार विकास पाता है । उसी प्रकार शरणागत अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न सत्ता से घुल-मिलकर अपने स्वभावानुसार विकास पाता है और सीमित स्वभाव को मिटाकर उससे अभिन्न भी हो जाता है। किन्तु उसका शरणागतभाव निर्विकल्प होना चाहिए, क्योंकि सद्भाव में विकल्प नहीं होता है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 34-35) ।