Sunday, 11 August 2013
(श्रावण शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व
शरणागत होने के पूर्व प्राणी की अहंता अनेक भागों में विभक्त रहती है। शरणागत होने पर अनेक भाव एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं । जब अनेक भाव एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं, तब प्राणी को एक जीवन में दो प्रकार के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव होता है । एक तो उसका वास्तविक जीवन होता है, दूसरा उसका अभिनय। शरणागत का वास्तविक जीवन केवल शरण्य का प्यार है। शरणागत का अभिनय धर्मानुसार विश्व-सेवा है, अर्थात् विश्व शरणागत से न्यायपूर्वक जो आशा रखता है, शरणागत विश्व की प्रसन्नता के लिए वही अभिनय करता है ।
यह नियम है कि अभिनय में सद्भाव नहीं होता, क्रिया-भेद होने पर भी प्रीतिभेद नहीं होता है । अभिनयकर्ता अपने आपको नहीं भूलता तथा उसकी अभिनय में जीवन-बुद्धि नहीं होती। अभिनय के अन्त में उस स्वीकृत भाव का अत्यन्त अभाव हो जाता है । बस उसी काल में शरणागत सब ओर से विमुख होकर शरण्य की ओर हो जाता है ।
प्राकृतिक नियम के अनुसार अनन्त शक्ति निरन्तर प्रत्येक प्राणी को स्वभावत: अपनी ओर आकृष्ट करती रहती है, परन्तु स्वतन्त्रता नहीं छीनती और न शासन करती है । यदि वह स्वत: आकर्षित न करती, तो प्राणी के सीमित प्यार को निरन्तर छिन्न-भिन्न न करती रहती । यह नियम है कि जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, अन्त में उसी में विलीन होती है । अत: अनन्त शक्ति से उद्भूत प्रेम की पवित्र धारा अनन्त शक्ति ही में विलीन होगी । उसे वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों में बाँधने का प्रयत्न व्यर्थ चेष्टा है । शरणागत-भाव होने पर प्रेम की पवित्र धारा शरण्य ही में विलीन होती है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 33) ।