Saturday, 10 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 10 August 2013  
(श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
शरणागति-तत्त्व

        भेद तथा अभेद भाव के शरणागत में अन्तर केवल इतना रहता है कि भेदभाव का शरणागत विरह एवं मिलन दोनों प्रकार के रसों का आस्वादन करता है और अभेद-भाव का शरणागत अपने में ही शरण्य का अनुभव कर नित्य एक रस का अनुभव करता है । अनुभव का अर्थ उपभोग नहीं है । उपभोग तो संयोग से होता है । उपभोग-काल में कर्ता में भोक्ता-भाव शेष रहता है । परन्तु मिलन का रस ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों भोक्ता की सत्ता मिटती जाती है । इसी कारण उपभोग-कर्ता कभी निर्वासना को प्राप्त नहीं होता । परन्तु शरणागत निर्वासना को प्राप्त होता है । वासनायुक्त प्राणी शरणापन्न नहीं हो सकता अथवा यों कहो कि शरणागत में वासना शेष नहीं रहती ।

        यदि कोई यह कहे कि शरण्य की वासना भी वासना है । तो विचार दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि शरणागत की शरण्य आवश्यकता है, वासना नहीं; क्योंकि वासना का जन्म भोगासक्ति एवं प्रमाद से होता है और आवश्यकता भोगासक्ति मिटने पर जाग्रत होती है । जिस प्रकार सूर्य का उदय एवं अन्धकार की निवृत्ति युगपत् है, उसी प्रकार भोगासक्ति की निवृत्ति और आवश्यकता की जागृति युगपत् है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि शरण्य की आवश्यकता वासना नहीं है । यद्यपि आवश्यकता की सत्ता कुछ नहीं, परन्तु प्रेमास्पद को न जानने की दूरी के कारण प्रेमपात्र ही आवश्यकता के रूप में प्रतीत होता है, जिस प्रकार धन की आवश्यकता ही निर्धनता है । इसी कारण विरही शरणागत भक्त विरह के रस में मुग्ध रहता है ।

        शरणापन्न की सार्थकता तब समझनी चाहिए, कि जब शरण्य शरणागत हो जाए, क्योंकि प्रेमी की पूर्णता तभी सिद्ध होती है, जब प्रेमपात्र प्रेमी हो जाता है । प्रेमपात्र के प्रेमी होने पर प्रेमी प्रेमपात्र के माधुर्य से छक जाता है । शरण्य के माधुर्य का रस इतना मधुर है कि शरणागत, शरणागत-भाव का त्याग न करने के लिए विवश हो जाता है । बस, यही भेद-भाव की शरणागति है। जब भेदभाव की शरणागति सिद्ध हो जाती है, तब शरण्य शरणागत को स्वयं बिना उसकी रुचि के उसी प्रकार अपने से अभिन्न कर लेते हैं, जिस प्रकार चोर बिना ही इच्छा के दण्ड पाता है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 32-33) ।