Tuesday 27 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 27 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        यह नियम है कि प्रत्येक संकल्प-जन्य प्रवृत्ति का अन्त कर्ता की स्वीकृति के अनुरूप होता है। यदि कर्ता की स्वीकृति पवित्र है, तो अपवित्र संकल्प उत्पन्न ही नहीं होते । अत: इस दृष्टि से यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि पवित्र प्रवृत्ति के लिए कर्ता को अपने में पवित्रता स्थापित करना परम अनिवार्य है अर्थात् कर्ता पवित्र होकर ही पवित्र प्रवृत्ति कर सकता है। पवित्रता तथा अपवित्रता भाव हैं, स्वरूप नहीं; क्योंकि स्वरूप का परिवर्तन नहीं होता । पवित्रता तथा अपवित्रता का परिवर्तन होता है । परन्तु पवित्रता औषधि और अपवित्रता रोग है । अत: पवित्रता अपवित्रता की अपेक्षा कहीं अधिक महत्व की वस्तु है। परिवर्तन उसी का होता है, जिसकी कर्ता ने अस्वाभाविक (Artificial) स्वीकृति स्वीकार कर ली है । इसका अर्थ यही है कि अपवित्रता के समान पवित्रता भी अस्वाभाविक है । पवित्रता में अस्वाभाविकता केवल इतनी ही है कि पवित्रता की स्वीकृति पवित्रता आने से पूर्व पवित्रता स्थापित करने के लिए की जाती है। वास्तव में तो पवित्रता की स्वीकृति राग के आधार पर होती है, क्योंकि प्राणी को प्रथम अपवित्रता का ज्ञान होता है । जिस ज्ञान से अपवित्रता का ज्ञान होता है, उसी से पवित्रता की स्वीकृति होती है । इस दृष्टि से पवित्रता की उतत्ति ज्ञान से हुई, किन्तु अपवित्रता की उत्पत्ति ज्ञान-शून्य अन्ध-विश्वास एवं इन्द्रिय-जन्य स्वभाव की आसक्ति के आधार पर होती है ।

        कर्ता स्वरूप से तो केवल समष्टि (Universal) क्रिया-शक्ति है, किन्तु उसमें व्यक्ति-भाव केवल स्वीकृति के आधार पर ही उत्पन्न होता है । उनमें से मूल स्वीकृतियाँ केवल तीन प्रकार की होती हैं - (1) विषय  (2) जिज्ञासा तथा (3) भक्ति। विषयी होने का वही अधिकारी है, जो प्राप्त भोगों को भोगता हुआ अप्राप्त उत्कृष्ट भोगों के लिए घोर प्रयत्न करता है । भक्त होने का वही अधिकारी है जो सब प्रकार से भगवान् का होने में समर्थ है तथा जिसके हृदय में भगवान् के प्रति विकल्प-रहित विश्वास है । जिज्ञासु होने का वही अधिकारी है, जो प्राप्त भोगों को भोगता नहीं, अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करता एवं दोष को दोष जान लेने पर उसे त्यागने में समर्थ है; इतना ही नहीं, प्रत्युत् जिसको निर्दोषता के अतिरिक्त किसी से लेशमात्र भी प्रीति नहीं है। 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 46-47) ।