आस्था
संदेह रहते आस्था सजीव नहीं होती | मानव दर्शन १७
यह अवश्यक नहीं है के आस्था विवेक से समर्थित हो, पर यह अवश्यक है के आस्था में विवेक का विरोध न हो | मानव दर्शन १८
संदेह देखे हुए में होता है, बोध जाने हुए का होता है, और आस्था सुने हुए में होती है | मानव दर्शन ५३
जब मिला हुआ और देखा हुआ अपने को संतुस्ट नहीं कर पाता, तब स्वाभाव से ही बिना जाने हुए मे आस्था होती है | मानव दर्शन ८८
अधूरे ज्ञान से जिज्ञासा जागृत होती है, आस्था नहीं | आस्था एकमात्र उसी में हो सकती है, जिसे कभी भी इन्द्रय तथा बुधि द्र्स्टी से अनुभव नहीं किया | मानव दर्शन ८८
'नहीं' की निवर्ती में विचार है, और 'है' की प्राप्ति में आस्था ही समर्थ है | मानव दर्शन ९५
आस्था 'स्व' के द्वारा होती है | उसके लिए कोई करण अपेक्षित नहीं है | मानव दर्शन ९७
जिसने आस्था स्वीकार की है, वह कोई करण नहीं है, अपितु कर्ता है | मानव दर्शन ९७
आस्था का उपयोग कामना की पूर्ति तथा निवृति में करना आस्था का दुरूपयोग है | आस्था का सदुपयोग एकमात्र आत्मीयता पूर्वक प्रियता की जाग्रति में ही है | मानव दर्शन ९९
आस्था देखे हुए तथा मिले हुए तथा देखे हुए में हो ही नहीं सकती, अपितु उसी में हो सकती है, जिसे देखा नहीं है | मानव दर्शन १०२
मिले हुए का उपयोग किया जा सकता है,उसमे आस्था नहीं की जा सकती | देखे हुए पर विचार किया जा सकता है, आस्था नहीं की जा सकती | सुने हुए में आस्था की जा सकती है , उस पर विचार नहीं किया जा सकता | साधन निधि ३८