Tuesday 7 August 2012

उदगार

 उदगार


शरीर  सदैव  म्रत्यु में रहता है , और मैं  सदेव अमरत्व मैं  रहता हु , यह मेरा परिचय है | प्रबोधनी १

 अरे दुनिया के दुखियो !  अब देर मत करो  ! व्याकुल ह्रदय से आनंदघन भगवान् को बुलाओ , वे अवश्य  आयेंगे, आयेंगे, आयेंगे |  संत पत्रावली १/७२

हे पतितपावन सर्वसमर्थ भगवान् ! आप अपनी और देख कर अपने इस पतित प्राणी को अपनाइए , जिससे इसका उद्धार तथा आपका नाम सार्थक हो | संत पत्रावली १/८०

तुम यह बात अपने मन से सदा के लिए निकल दो की मेरे समीप आने पर ही मेरी सेवा होगी | तुम जितना  अपने को सुन्दर  बना  लोगे ,उतनी  ही मुझे  प्रसन्नता   होगी और वही  मेरी सच्ची सेवा होगी |  संत पत्रावली २/३५

वास्तव   में तो  मानव  मात्र   के अनुभूति  ही मानव-सेवा-संघ का साहित्य है |   पाथेय १०३ 

जिसने जाने हुए असत के त्याग द्वारा असाधन का अंत कर साधन  परायणता प्राप्त की, उसने तो मेरी बड़ी सेवा की है | जो अपने लिए तथा जगत के लिए एवं प्यारे प्रभु  के लिए उपयोगी है , वही मुझे परम प्रिय है |      पाथेय १३०

तुम कभी अपने स्वरुप को मत भूलो | यही मेरी सर्वोतकर्स्ट  सेवा है |  पाथेय ३२४

गीता के रचियता से मेरा बड़ा भरी सम्बन्ध  है | वे मेरे बड़े मित्र है | मैं गीता का बड़ा आदर करता हु ; क्युकी यह मेरे दोस्त की बातचीत  है |   संतवाणी ७/१६९

मेरा बचा हुआ काम है - सोयी मानवता को जगाना |  संतवाणी ३/४०

- (शेष आगेके ब्लागमें)