Tuesday, 21 August 2012

धर्म

                 धर्म

जिस प्रवर्ती में त्याग तथा प्रेम भरपूर  है , वही वास्तव में धर्म है ।  संत समागम २/२७९

जो प्रवर्ती धर्मानुसार की जाती है, उसमे भाव का मूल्य होता है क्रिया का नहीं । भाव को मिटा कर क्रिया को मूल्य देना पशुता है ।  संत समागम २/२७८

धर्म का मतलब है जो नहीं करना चाहिए,  उसको छोड़ दो तो जो करना चाहिये, वही होने लगेगा ।   संतवाणी ५/१७९

आप जानते है मजहब की आवस्यकता  क्यों होती है ? अपने जाने हुए असत का त्याग करने के लिए ।  जीवन पथ १३१-१३२

धर्म एक है अनेक नहीं । जिस प्रकार रेलवे स्टेशन पर मुसलमान के हाथ में होने से ;मुसलमान पानी' और हिन्दू के हाथ में होने से 'हिन्दू पानी'  कहलाता है , यदपि बेचारा पानी न तो हिन्दू होता है न मुसलमान । उसी प्रकार जब लोग धर्मात्मा को किसी कल्पना में बांध  लेते है, तब उसके नाम से उस धर्म को कहने लगते है ।   संत समागम १/५८

सभी बंधन प्राणी  में उपस्थित है, परिस्थिति में नहीं । प्रतिकूल परिस्थिती का भय नास्तिक अर्थात धर्म रहित प्राणियो को होता है । धर्मात्मा प्रतिकूल परिस्थितियो से नहीं डरता, प्रत्युत उसका सदुपयोग करता है ।    संत समागम २/२८०

मानवमात्र का धर्म भिन्न नहीं हो सकता । मानवमात्र का धर्म एक ही है ।  संत वाणी ८/१११

धर्म माने संसार के काम आ जाओ । और संसार के काम कैसे आओगे ? इस सत्य को स्वीकार करो की मन से, वाणी से, कर्मे से, कभी किसी को हानि नहीं पंहुचाउंगा  । संत वाणी ८/१०९