धर्म
जिस प्रवर्ती में त्याग तथा प्रेम भरपूर है , वही वास्तव में धर्म है । संत समागम २/२७९
जो प्रवर्ती धर्मानुसार की जाती है, उसमे भाव का मूल्य होता है क्रिया का
नहीं । भाव को मिटा कर क्रिया को मूल्य देना पशुता है । संत समागम २/२७८
धर्म का मतलब है जो नहीं करना चाहिए, उसको छोड़ दो तो जो करना चाहिये, वही होने लगेगा । संतवाणी ५/१७९
आप जानते है मजहब की आवस्यकता क्यों होती है ? अपने जाने हुए असत का त्याग करने के लिए । जीवन पथ १३१-१३२
धर्म एक है अनेक नहीं । जिस प्रकार रेलवे स्टेशन पर मुसलमान के हाथ में
होने से ;मुसलमान पानी' और हिन्दू के हाथ में होने से 'हिन्दू पानी'
कहलाता है , यदपि बेचारा पानी न तो हिन्दू होता है न मुसलमान । उसी प्रकार
जब लोग धर्मात्मा को किसी कल्पना में बांध लेते है, तब उसके नाम से उस
धर्म को कहने लगते है । संत समागम १/५८
सभी बंधन प्राणी में उपस्थित है, परिस्थिति में नहीं । प्रतिकूल
परिस्थिती का भय नास्तिक अर्थात धर्म रहित प्राणियो को होता है । धर्मात्मा
प्रतिकूल परिस्थितियो से नहीं डरता, प्रत्युत उसका सदुपयोग करता है ।
संत समागम २/२८०
मानवमात्र का धर्म भिन्न नहीं हो सकता । मानवमात्र का धर्म एक ही है । संत वाणी ८/१११
धर्म माने संसार के काम आ जाओ । और संसार के काम कैसे आओगे ? इस सत्य को
स्वीकार करो की मन से, वाणी से, कर्मे से, कभी किसी को हानि नहीं
पंहुचाउंगा । संत वाणी ८/१०९