Monday, 20 August 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 20 August 2012  
(श्रावण अधिक-भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

             धन

        धन संग्रह से कोई निर्धनता मिट जाये - यह बात नहीं है । (संतवाणी 5/231)

      जब तक भौतिक मन में 'अर्थ'  का महत्व है, तब तक उसका अपव्यय मन में खटकता है और उसकी प्राप्ति सुखद प्रतीत होती है ।  (पाथेय 30)

       क्या कर्जा बाटने वाला गरीब नहीं है । कर्ज लेने वाला ही गरीब है क्या ? सोचो जरा इमानदारी से । (संतवाणी  8/14)

        कुछ लोग तो यही घमंड  करते हैं कि हमारे पास सम्पत्ति सबसे अधिक है । उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि हममें बेसमझी सबसे अधिक है । विचार करे, सम्पत्ति के आधार पर जो तुम्हारा महत्व है, शायद  उससे अधिक बेसमझी और कही नहीं मिल सकती ।  (संतवाणी 7/122)

        संग्रह का अधिकार उन्ही  लोगो को है, जो अपने  लिए संग्रह नहीं करते ।  (मानव दर्शन 147)

        श्रम को सिक्के में बदलने से श्रम का महत्व नहीं बढ़ता।   (दर्शन और निति 54)

       निर्धन वह है जिसे, दूसरे का धन अधिक दिखाई देता है और अपना धन कम दिखाई देता है ।    (संत समागम 2/72)

         बाहर से जितना इकट्ठा करोगे, उतने ही भीतर से  गरीब होते चले जाओगे ।   (संतवाणी 8/17)

        धन का संग्रह करने की सामर्थ्य जिसमें होती है, उसमें धन का सदुपयोग करने की योग्यता नहीं होती । ऐसा नियम ही है । यदि सदुपयोग करना आ जाये तो वह संग्रह कर ही नहीं सकता ।  (संतवाणी 7/184)

        सिक्के से वस्तुओं का , वस्तुओं से व्यक्ति का,  व्यक्तियों से विवेक का और विवेक से उस नित्य जीवन का, जो परिवर्तन से अतीत है, अधिक महत्व है ।   (संत समागम 2/91)

        जिसके पास धन न हो, उसको दान  करने का संकल्प नहीं उठने देना चाहिए । ...... दान तो संग्रह करने का टैक्स है ।   (संत सौरभ 78)

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'क्रान्तिकारी संतवाणी' पुस्तक से ।