Sunday, 19 August 2012
(श्रावण अधिक-भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, रविवार)
(गत ब्लाग से आगेका)
त्याग
एक शरीर को लेकर कुटिया में बंद कर दिया और हम त्यागी हो गए । मैं तो
कहूँगा की तुम्हारे बाप भी त्यागी नहीं हो सकते । यदि पूछो क्यों त्यागी
नहीं हो सकते ? तो कहना होगा की अपने अपने (अहम् का) त्याग तो किया नहीं । भाई मेरे अगर त्याग करना हो तो अपना त्याग करो । और प्रेम करना हो तो सभी
को प्रेम करो । और यदि अपने-आप का त्याग नहीं कर सकते तो आप संसार का भी
त्याग नही कर सकते । (प्रेरणा पथ 187)
त्याग क्या है ? मैं शरीर और संसार से अलग हूँ । इसका फल क्या है ? अचाह होना, निर्मम होना और निष्काम होना । (संत उदबोधन 105)
त्याग का अर्थ है किसी वस्तु को अपना मत मानो । स्थूल, सूक्ष्म और कारण
शारीर से सम्बन्ध मत रखो । कर्म, चिन्तन एवं स्थिति किसी भी अवस्था में
जीवन-बुद्धि मत रखो । किसी का आश्रय मत लो । किसी से सुख की आशा मत करो । ( संत उदबोधन 161)
ममता, कामना और तादात्मय के त्याग का नाम 'संन्यास' है। (संत उदबोधन 190)
मानव का अपना हित तो त्याग में है । (मानव दर्शन 129)
शरीर और संसार को छोड़ने का प्रश्न नहीं है । प्रश्न है कि शरीर और संसार से हमारा सम्बन्ध न रहे । (संतवाणी 8/151)
मोहयुक्त क्षमा और क्रोधयुक्त त्याग निरर्थक है । (संत समागम 2/344)
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'क्रान्तिकारी संतवाणी' पुस्तक से।