रोग
रोग शारीर की वास्तविकता समजहाने के लिए आता है। संत पत्रावली १/११९
रोग पर वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो शरीर से असंगता का अनुभव कर लेता है । संत पत्रावली १/१२४
जब प्राणी तप नहीं करता, तब उसको रोग के स्वरुप में तप करना पड़ता है । संत पत्रावली १/१४९
प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिंतन , अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है । साधन त्रिवेणी ६१
वास्तव में जीवन की आशा ही परम रोग है और निराशा ही अरोग्यता है । देहभाव का त्याग ही सच्ची औसधि है । संत पत्रावली २/३६
रोग प्राकृतिक तप है । उससे डरो मत । रोग भोग की रूचि का नाश तथा
देहाभिमान गलाने के लिए आता है । इस द्रिस्टी से रोग बड़ी अवश्यक वस्तु है
। संत पत्रावली २/१७०
सभी रोगों का मूल एकमात्र राग है । पाथेय ४८
जो भोगी होता है , वह रोगी अवश्य होता है । यह नियम है । संतवाणी ५/१९२
रोग से शारीर की वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है, जिससे भोग वासनाओ के त्याग करने की शक्ति आ जाती है । संत समागम २/३००