Saturday, 18 August 2012

रोग

रोग

रोग शारीर की वास्तविकता समजहाने  के लिए आता है।   संत पत्रावली  १/११९

रोग पर वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो शरीर  से असंगता का अनुभव कर लेता है  ।   संत पत्रावली  १/१२४

जब प्राणी तप नहीं करता, तब उसको रोग के स्वरुप  में तप करना पड़ता है ।  संत पत्रावली  १/१४९

प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिंतन , अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है ।  साधन त्रिवेणी ६१

वास्तव में जीवन की आशा ही परम रोग है और निराशा ही  अरोग्यता है । देहभाव का  त्याग  ही सच्ची औसधि  है  ।  संत पत्रावली  २/३६

रोग प्राकृतिक तप है । उससे डरो मत । रोग भोग की रूचि का नाश तथा देहाभिमान गलाने के लिए आता है । इस द्रिस्टी से रोग बड़ी अवश्यक  वस्तु है ।  संत पत्रावली  २/१७०

सभी रोगों का  मूल एकमात्र राग है ।   पाथेय ४८ 

जो भोगी होता है , वह रोगी अवश्य होता है । यह नियम है ।  संतवाणी ५/१९२

रोग से शारीर की वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है, जिससे भोग वासनाओ के त्याग करने की शक्ति आ जाती है ।  संत समागम २/३००