Wednesday, 9 May 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 09 May 2012
(ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी का बुरा न चाहना

        अपने पर अपना शासन करने की भावना एवं प्रवृति तभी जाग्रत होती है, जब उसे कोई दूसरा शासित न करे, अपितु आत्मीयतापूर्वक पीड़ित होकर सहयोग प्रदान करे। इस कारण किसी को बुरा समझना, किसी का बुरा चाहना और किसी के प्रति बुराई करना सर्वथा त्याज्य है । यही सर्वांश में बुराई-रहित होने का अचूक उपाय है ।

        बुराई-रहित जीवन की माँग सदैव सभी को रहती है । और बुराई-रहित जीवन में ही साधक का सर्वोतोमुखी विकास होता है। इस दृष्टि से बुराई-रहित होना वर्तमान का  प्रश्न है, जो एकमात्र साधन-निधि के सम्पादन से ही सम्भव है । साधन-निधि में ही साधक का जीवन और साध्य की प्रसन्नता निहित है। साधन-निधि प्रत्येक साधक को उपलब्ध हो सकती है । उससे निराश होना, अपने को उसका अधिकारी न मानना साधक की ही भारी भूल है, जिसका शीघ्रातिशीघ्र अन्त करना अनिवार्य है ।

        किसी को बुरा न समझने, किसी का बुरा न चाहने और किसी के प्रति बुराई बुराई न करने का निर्विकल्प निर्णय श्रम-साध्य उपाय नहीं है, अपितु अपने ही द्वारा अपने को स्वीकार करना है । जो अपने द्वारा करना है, उसमें पराधीनता तथा असमर्थता नहीं है - यह प्राकृतिक विधान है । विधान के आदर में ही मानव का अधिकार है । यह स्वाधीनता उसे उसके निर्माता ने दी है । मिली हुई स्वाधीनता का सदुपयोग ही तो मानव का परम पुरुषार्थ है । इस दृष्टि से साधन-निधि के सम्पादन में प्रत्येक साधक सर्वदा समर्थ है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 36) ।