Thursday 10 May 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 10 May 2012  
(ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी का बुरा न चाहना

        जब यह कहा जाता है कि किसी को बुरा न समझो, किसी का बुरा न चाहो एवं किसी की बुराई न करो, तब यह प्रश्न स्वतः उत्पन्न होता है कि जब सबल निर्बलों को सता रहे हैं, तब बेचारा निर्बल कैसे किसी को बुरा न समझे, तथा किसी का बुरा न चाहे? इस समस्या पर विचार करने पर ऐसा विदित होता है कि सबल निर्बल के प्रति बल का रूपयोग तभी करता है, जब किसी को निर्बल पाता है । यदि जीवन में निर्बलता न रहे, तो सबल अत्याचार नहीं कर सकता, यह निर्विवाद सिद्ध है ।

       सबसे बड़ी निर्बलता जीवन में कब आती है ? जब मानव प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु को नहीं अपनाता, अपितु सबल के अत्याचार को स्वीकार कर जीना चाहता है । इस निर्बलता ने ही सबल की बल के दुरूपयोग करने की प्रवृति को पोषित किया है। मानव को अपना लक्ष्य अपने प्राणों से अधिक प्रिय होना चाहिए। लक्ष्य की सिद्धि के लिए हर्षपूर्वक प्राणों का त्याग करना आ जाय, तो कोई भी सबल निर्बल को अपने अधीन नहीं कर सकता। परन्तु प्राणों का प्रलोभन उससे अमानवतापूर्ण अत्याचार सहन कराता है ।

        भौतिक निर्बलताओं के कारण सबल के द्वारा किए गए बल के दुरूपयोग को सहन करना और उसके अधीन हो जाना, यह साधक का प्रमाद है, और कुछ नहीं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 36-37) ।