Tuesday 8 May 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 08 May 2012
(ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी का बुरा न चाहना

     क्षुभित तथा क्रोधित होने पर तो मानव में विनाश की भावना उत्पन्न होती है, जो किसी भी बुराई से कम नहीं है। विनाश की भावना में अपना ही विनाश निहित है; कारण कि 'पर' के प्रति जो किया जाता है, वह अपने प्रति हो जाता है, यह वैधानिक तथ्य है ।

        परहित में, पर-सेवा में साधक का अधिकार है । किसी को बुरा समझने, बुरा चाहने एवं किसी के साथ बुराई करने में साधक को कोई अधिकार नहीं है । इतना ही नहीं, परचिन्तन मात्र से ही साधक का अहित होता है । यद्यपि किसी न किसी नाते सभी अपने हैं । परन्तु जिसके नाते सभी अपने हैं, अपना तो वही है, अपने की प्रियता और उनके नाते सभी की सेवा ही तो साधक का जीवन है ।

       सेवा तभी सिद्ध होती है, जब शासक की भावना का सर्वांश में नाश हो जाय । सेवक शासक नहीं होता और शासक सेवा नहीं कर पाता । किसी को बुरा समझना, किसी का बुरा चाहना और किसी के प्रति किसी भी कारण से बुराई करना शासन की प्रवृति है, सेवा नहीं । शासक शासित का विकास नहीं कर पाता । सेवक के द्वारा सभी का विकास होता है । साधक सभी  के लिए उपयोगी हो, यही तो उसकी वास्तविक माँग है ।

        जो किसी के लिए भी अनुपयोगी होता है, वह साधक नहीं है। किसी के लिए उपयोगी और किसी के लिए अनुपयोगी हो जाना शासन करना है, सेवा नहीं । उसका परिणाम कभी भी हितकर सिद्ध नहीं होता । इतना ही नहीं, दो देशों, दलों, वर्गों, व्यक्तियों आदि में परस्पर वैर-भाव ही दृढ़ होता है, जो विनाश का मूल है। हाँ, साधक अपने ही द्वारा अपने पर शासन करता है और की हुई भूल नहीं दोहराता, अर्थात् वर्तमान निर्दोषता सुरक्षित रखता है, जो सर्वतोमुखी विकास की भूमि है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 35-36) ।