Monday, 07 May 2012
(ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
किसी का बुरा न चाहना
बुराई करने की अपेक्षा किसी का बुरा चाहना बहुत बड़ी बुराई है । यद्यपि किसी का बुरा चाहने से उसका बुरा हो नहीं जाता, परन्तु बुरा चाहने से बुरा चाहनेवाले की बहुत भारी क्षति होती है । इतना ही नहीं, बुराई करने पर तो करनेवाले में परिवर्तन भी आता है और वह बुराई करने से अपने को बचाने का प्रयास भी करने लगता है, किन्तु बुरा चाहने से तो भाव में अशुद्धि आ जाती है ।
भाव कर्म की अपेक्षा अधिक विभु और स्थायी होता है । इस कारण बुरा चाहने से बुराई करने की अपेक्षा अधिक क्षति होती है। जो किसी का बुरा नहीं चाहता, उसमें सर्वहितकारी भावना तथा करुणा स्वतः जाग्रत होती है । इस दृष्टि से बुरा चाहने की प्रवृति सर्वथा त्याज्य है ।
जब साधक किसी का बुरा नहीं चाहता, तब उसमें उसके प्रति भी करुणा जाग्रत होती है, जो उसे बुराई करता हुआ प्रतीत होता है और उसके प्रति भी, जिसके प्रति बुराई की जा रही है। उसकी सद्भावना दोनों ही पक्षों के प्रति समान रहती है । इस कारण उसमें क्षोभ तथा क्रोध की उत्पत्ति ही नहीं होती, जिससे वह स्वभाव से ही कर्तव्यनिष्ठ हो जाता है और उससे सभी का हित होने लगता है । यह ध्रुव सत्य है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 34-35) ।