Sunday 6 May 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 06 May 2012
(वैशाख पूर्णिमा, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

       यदि कोई स्वयं अपने को दोषी स्वीकार करे, तब भी साधक उसे उसकी वर्तमान निर्दोषता का स्मरण दिलाकर उसे सदा के लिए निर्दोषता सुरक्षित रखने की प्रेरणा देता है और उससे वर्तमान निर्दोषता के अनुरूप ही व्यवहार करता है । इस दृष्टि से परस्पर निर्दोषता सुरक्षित रखने का बल प्राप्त होता है ।

        जगत् के प्रति इस प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करना जगत् के लिए मंगलकारी है । अपने द्वारा जगत् का अहित न हो, इसमें साधक की अविचल निष्ठा रहनी चाहिए । यह तभी सम्भव होगा, जब वह वर्तमान निर्दोषता के आधार पर किसी को बुरा न समझे और न किसी का बुरा चाहे एवं न किसी के साथ बुराई करे । 

       ऐसा होने पर ही सुगमतापूर्वक जीवन जगत् के लिए उपयोगी होता है, अथवा यों कहो कि जगत् के अधिकार की रक्षा हो जाती है । साधक पर जगत् और जगतपति दोनों का ही अधिकार है । अपने लिए उपयोगी हो जाने पर, अपने अधिकार का प्रश्न ही शेष नहीं रहता, किन्तु साधक के प्रति जगत् की उदारता और जगतपति की कृपालुता सदैव रहती है, यह मंगलमय विधान है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 29-30) ।