Saturday, 5 May 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 05 May 2012
(वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

       यह सभी को मान्य होगा, कि सर्वांश में कोई बुरा नहीं होता, सभी के लिए कोई बुरा नहीं हो सकता और बुराई नहीं कर सकता । बुराई की उत्पत्ति होती है, अर्थात् उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । इसी कारण बुराई न दोहराने से बुराई सदा के लिए मिट जाती है, यह मंगलमय विधान है । इस विधान का आदर करना प्रत्येक साधक के लिए अनिवार्य है । अतः बुराई करने का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

       जब साधक इस महाव्रत को अपना लेता है, तब बुरा नहीं रहता और जब बुरा नहीं रहता, तब बुराई की उत्पत्ति ही नहीं होती, जिसके न होने पर कर्तव्यपरायणता स्वतः आ जाती है, यह निर्विवाद सत्य है ।

        बुराई न करने का व्रत साधक को वर्तमान निर्दोषता से अभिन्न करता है । इस कारण उसके अहम् में से यह धारणा सदा के लिए निकल जाती है कि 'मैं बुरा हूँ' । प्राकृतिक नियमानुसार कर्ता में से ही कर्म की उत्पत्ति होती है । 

        जब साधक वर्तमान निर्दोषता के आधार पर अपने को निर्दोष स्वीकार कर लेता है, तब उसमें पुनः दोषों की उत्पत्ति नहीं होती । इस दृष्टि से बुराई-रहित होने का व्रत प्रत्येक साधक के लिए अनिवार्य है । इतना ही नहीं, दूसरों के सम्बन्ध में भी उसकी यही धारणा हो जाती है कि वर्तमान तो सभी का निर्दोष है।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 28-29) ।