Wednesday, 29 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Wednesday, 29 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग मानव का स्वधर्म

      जब ज्ञान का आदर करना शुरू करेंगे तो निर्मोहता आ जाएगी, निर्ममता आ जाएगी, निष्कामता आ जाएगी। निर्ममता आने पर भी आप परिवार का, समाज का कार्य कर सकेंगे । निष्काम होने पर भी आप काम कर सकेंगे । मोह और ममता पहले थोड़े होती है, वह तो ज्ञान के अनादर के बाद होती है । भूल का परिणाम है मोह और ममता । मोह-ममता स्वाभाविक थोड़े ही है । परिवार की सेवा करो, ममता का क्या अर्थ ? परिवार के अधिकार की रक्षा करो और परिवार के उपर से अपना अधिकार हटा लो । यही त्याग हो गया ।

        अपना अधिकार हटा लोगे तो ज्ञान मार्ग हो जाएगा और परिवार का अधिकार मान लोगे तो भौतिकवाद हो जाएगा। दुनियादार होकर रहना चाहो तो दूसरों के अधिकार की रक्षा करो और दुनिया के उपर उठना चाहो तो अपने अधिकार का त्याग करो । परिवार को बुरा मत समझो, परिवार की निन्दा मत करो। हर आदमी अपनी जगह पर पूरा और श्रेष्ठ है । क्योंकि भौतिकवाद की चरम सीमा; पराकाष्ठा हो जाएगी तो अध्यात्मवाद आ ही जाएगा । और अध्यात्मवाद की पूर्णता हो जाएगी तो ईश्वरवाद आ ही जाएगा । आरम्भ-काल में भेद है और अन्त में तीनों एक ही जीवन की चीज है न ?

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 32-33) । 

Satsang : Man's own inmost religion

(Continuance from the last blog-post)

        Freedom from delusion, from the egoistic sense of ‘me and mine’, from desire itself will come when you embark on the path of reverent attention to innate wisdom. Purged of the sense of ‘me and mine’ you will still be able to work for the family and the society. Even if desireless you can go on performing work. Delusion and the egoistic sense of ‘me-mine’ don’t happen initially at all; these follow from irreverent negligence of inward awareness, resulting from the mistake of carelessness. The delusory sense of ‘me-mine’ is not innately natural at all. Offer your service to the family, whatever the meaning of me-mine. Conserve the right of family and take away your selfish right of ownership over it. This itself amounts to self-denial of renunciation.

        It will come out as the path of awareness if you withdraw your own right and emerge as the path of materialism if you accept or believe in the right of the family. If you choose to remain with the world as sole truth, safeguard other’s rights, and renounce your own right in case you want to rise above the world. Don’t disregard nor condemn the family. Everyman is sufficient and superb in his position. This is so because spiritualism is sure to emerge when materialism reaches its last limit, its culmination. And theism is bound to come from the climactic fullness of spiritualism. The three paths are triadic with difference at the outset but don’t they culminate as excellences in a singular, unique life? 

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 39-40)  

Tuesday, 28 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Tuesday, 28 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग मानव का स्वधर्म

     कर्तव्यपरायणता कहो चाहे धर्म-विज्ञान कहो चाहे भौतिकवाद कहो, एक ही बात है । असंगता कहो चाहे अध्यात्मवाद कहो, एक ही बात है । आत्मीयता कहो चाहे ईश्वरवाद कहो, एक ही बात है । भौतिकवादी होने से कर्तव्यपरायणता से सिद्ध होगी, अध्यात्मवादी होने से असंगता से सिद्ध होगी और ईश्वरवादी होने से आत्मीयता से सिद्ध होगी ।

        तो जो मैं कहता हूँ उसका अर्थ आप वही लेते हैं जो मैं कहता हूँ या मनमाना अर्थ लेते हैं ? इसलिए जो मैंने कहा है उससे क्या समझा है आपने सो बताओ । बल का दुरूपयोग न करना आपको ठीक मालूम पड़ता है कि नहीं ? और ज्ञान का अनादर न करना ? और श्रद्धा में विकल्प न करना ? श्रोता - ज्ञान का अनादर तो नहीं करना चाहिए लिकिन मोह और ममता। स्वामीजी - मोह और ममता तो उसका फल है । ज्ञान के अनादर का फल है मोह और ममता ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 32) । 

Satsang : Man's own inmost religion

(Continuance from the last blog-post)

      It amounts to identical predication whether you call it dutifulness or the science of religion or the philosophy of materialism. Accordingly again it is the same thing whether you call it dispassion, detachment or the concept of spiritualism. And again it is the same thing whether you call it a soulful kinship of identity with God or the philosophy of theism. The materialist attains to perfection by dint of devotion to duty, the spiritualist by dispassion and detachment and the theist by inward, intimate kinship with God.

      Do you understand exactly as I say or do you misconceive it arbitrarily? Tell me, therefore your perception of what I have said. Doesn’t refusal to abuse strength appear prudent and right to you? And what about refusal to disregard the light of wisdom? And not to pervert faith with alternatives? The audience agrees with affirmation that the same light of wisdom should not be disregarded but poses some interruptions on account of delusion and egoistic sense of ‘me and mine’. Swamiji replies with the aphorism that delusion and sense of ‘me and mine’ are byproducts of irreverence for the inward flame of awareness. Delusion and egoism erupt from inattention to the inner light of wisdom. 

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 39)  

Monday, 27 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Monday, 27 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग मानव का स्वधर्म

        सत्संग का अर्थ है कि जो नहीं करनेवाली बात है वह नहीं करेंगे । जैसे - अगर आपसे भलाई नहीं होती तो कोई बात नहीं; किसी के साथ बुराई मत करो । तो बुराई-रहित होने से हम भले हो जाएँगे और जब हम भले हो जाएँगे तो भलाई स्वतः होने लगेगी क्योंकि कर्ता में ही से कर्म निकलता है। होनेवाली भलाई का अभिमान और फल छोड़ दें तब आप स्वाधीन हो जाएँगे । स्वाधीन होने से दो चीजें अपने आप आ जाती हैं जीवन में - संसार के प्रति उदारता और परमात्मा के प्रति प्रेम स्वतः उदय होता है । यह तब सत्संग का ही फल है ।

        और यह भी कहा गया था कि जितनी समस्याएँ आती हैं जीवन में उन सारी समस्याओं का हल सत्संग से ही हो सकता है। और सत्संग बताया आपका अपना स्वधर्म, कोई अभ्यास नहीं बताया । तीन तत्व आपमें हैं । ज्ञान का तत्व है उसका तो अनादर न करें, बल का तत्व है उसका दुरूपयोग न करें, श्रद्धा का तत्व है उसमें विकल्प न करें । क्या चीज आपके जीवन में ज्ञान से सिद्ध है ? क्या चीज आपके बल से सिद्ध है ? क्या चीज आपकी आस्था से सिद्ध है ? कर्तव्यपरायणता आपके बल के अधीन है, असंगता ज्ञान के अधीन है और आत्मीयता आस्था के अधीन है।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 31-32) । 

Satsang : Man's own inmost religion

(Continuance from the last blog-post)

        The gist of Satsang is that we won’t do what is unworthy of doing. For example, it is not important if you are unable to do good; only don’t be an evildoer to anyone that you might become devoid of evil, and be transformed into good. When matured into good, beneficence will automatically emanate from you because action originates from doer. You will realize spiritual freedom when you surrender even the fruit and self-conceit of good flowing spontaneously from you. Two excellent essential elements of sadhana emerge naturally in life with this freedom of spirit – there is dawn of magnanimity to the world and love for God. All this is the fruition of Satsang alone.

        And affirmation was made even to the effect that all problems which come up in life can be setteled by Satsang alone. And Satsang itself was underlined as your own inmost religion; no mechanical practice of a given exercise was pointed out as the panacea. You are an extraordinary alchemy of three elemental constituents. Don’t be irreverent to the element of awareness germane to you, don’t abuse the element of vigor, verve of the body-mind and don’t allow contamination of faith with alternative options through doubt and uncertainty. What are the excellences in terms of sadhana attainable by virtue of the three elemental essences of our organized being? Devotion to duty is contingent on right use of strength of the body-mind; dispassion, detachment is subject to reverence for inward awareness and loving oneness with God is realized on condition of faith absolutely untainted by doubt. 

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 38-39)  

Sunday, 26 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Sunday, 26 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

सत्संग मानव का स्वधर्म

        सत्संग को मैंने स्वधर्म बताया । सत्संग स्वधर्म है, पुरुषार्थ है । सत्संग से ही असाधन का नाश होता है, साधन की अभिव्यक्ति होती है, साधन और जीवन में एकता होती है । मनुष्य को सत्संग करना चाहिए । सत्संग की परिभाषा क्या है ? बल का दुरूपयोग नहीं करूँगा यह सत्संग है, ज्ञान का अनादर नहीं करूँगा यह सत्संग है, विश्वास में विकल्प नहीं करूँगा यह सत्संग है । यह मनुष्य का व्रत होना चाहिए ।

        किसी भी व्रत को पूरा करने के लिए तीन चीजों की जरूरत होती है - तप की, प्रायश्चित की और प्रार्थना की । तो तप, प्रायश्चित और प्रार्थना पूर्वक इस व्रत को पूरा करो । बल का दुरूपयोग नहीं करोगे तो कर्तव्यपरायणता आ जाएगी अपने आप। ज्ञान का अनादर नहीं करोगे तो असंगता आ जाएगी और श्रद्धा-विश्वास में विकल्प नहीं करोगे तो आत्मीयता आ जाएगी। 

        कर्तव्यपरायणता से जीवन जगत् के लिए उपयोगी होगा। असंगता से जीवन अपने लिए उपयोगी होगा तथा आत्मीयता से परम प्रेम की प्राप्ति होगी और जीवन प्रभु के लिए उपयोगी होगा। इसीलिए मैंने जो जोर दिया है वह इस बात पर कि हमें सत्संग करना चाहिए ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 31) । 

Satsang : Man's own inmost religion

        I pointed out to Satsang as man’s own inmost religion. Satsang is man’s own inmost religion, the prime object of his existence and effort. Satsang alone brings about the destruction of delusion antithetical to sadhana, does for its revelation, and unfolds the oneness of life and sadhana. It behoves man to effectuate Satsang. What is the definition of Satsang? Resolute decision not to abuse strength is Satsang. Not to disregard the light of innate wisdom, or dismiss the luminescence of inward awareness, is Satsang. That I will not adulterate faith with alternatives of doubt is Satsang. This ought to be the unflinching, solemn vow of the human being.

        Three initiatives are required for fulfillment of any sacred vow – asceticism, atonement and prayer. Fulfill the three vows with austerity, penance and prayer. Devotion to duty will come on its own, once you stop the abuse of strength. Dispassion, detachment will come about when you stop disregard of the light of discrimination. If you eschew dilution of faith with alternatives of doubt, ambiguity, you will gain spiritual identity of kinship with God.

        Devotion to duty will make life useful to the world. Dispassion and detachment will make it useful to you. Spiritual identity of kinship with God will enable you to attain supreme love which makes life useful to the Lord himself. It is why, I have emphasized the need to embark on Satsang.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 38)  

Saturday, 25 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 25 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
          
(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय। प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी, नित्य-नव रस की अभिव्यक्ति होती है। उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र सवाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है। यह जीवन का सत्य है ।

        सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझपर सभी का अधिकार है। बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वतः हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वतः अभिव्यक्ति होती है ।

        "मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए" - यह मानव का पुरुषार्थ है । सर्व-समर्थ प्रभु अपने हैं, सब कुछ प्रभु का है - यह वेद-वाणी तथा गुरुवाणी के द्वारा विकल्प-रहित विश्वासपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । विश्वास से भिन्न प्रभु-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है । निर्विकारता, चिर-शान्ति तथा अविनाशी जीवन ज्ञान से सिद्ध है और सबकुछ प्रभु का है, प्रभु अपने हैं - यह विश्वास से सिद्ध है । विश्वास भी बल तथा ज्ञान के समान दैवी-तत्व है ।

        बल जगत् की सेवा के लिए है और ज्ञान भूल-रहित होने के लिए है और विश्वास से ही प्रभु से आत्मीय सम्बन्ध होता है। बल का उपयोग विज्ञान से होता है अथवा यों कहो कि विज्ञान भी एक प्रकार का बल है, उसका कभी भी दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बल का दुरूपयोग न करना मानवता है अर्थात् जीवन-विज्ञान है। सदुपयोग के अभिमान तथा फलासक्ति से रहित होना अध्यात्मवाद अर्थात् मानव-दर्शन है । जीवन-विज्ञान हमें उदारता तथा अध्यात्म-विज्ञान हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । प्रभु अपने हैं, अपने में हैं - यह आस्था हमें प्रेम-तत्व से अभिन्न करती है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम ही जीवन है, जिसकी माँग बीज-रूप से मानव-मात्र में विद्यमान है । जीवन का जो सत्य है उसे स्वीकार करने से ही भूल की निवृति एवं योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति होती है । यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16-18)

Friday, 24 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 24 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
        
 (गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        दूसरों के द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत सम्पत्ति के विभाजन-मात्र से समाज की गरीबी नहीं मिटेगी । अपितु समाज में आलस्य और विलास की ही वृद्धि होगी, जो दरिद्रता का मूल है। राष्ट्रगत सम्पत्ति हो जाने से सरकार के नाम पर समाज में एक नौकरशाही वर्ग उत्पन्न हो जाता है । समाज में बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में देश की सारी सामर्थ्य आ जाती है । सामर्थ्य का अल्प संख्या में एकत्रित हो जाना, व्यक्तियों को सामर्थ्य के अभिमान में आबद्ध करना है, जो विनाश का मूल है । जब अधिक संख्या में सामर्थ्य विभाजित रहती है, तब मानव स्वाधीनतापूर्वक एकता तथा समता की ओर अग्रसर होता है ।

        अकिंचन तथा स्वाधीन होने से व्यक्ति को अपने लिए सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती । फिर वह देहातीत अर्थात् जगत् से परे के जीवन को पाकर सन्तुष्ट हो, उदार तथा प्रेमी स्वतः हो जाता है, जिससे मानव की जगत् और जगत् के प्रकाशक से वास्तविक एकता हो जाती है । स्वाधीनता, उदारता और प्रेम उसका जीवन हो जाता है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम अविनाशी तथा अनन्त तत्व हैं अथवा यों कहो कि प्रभु का स्वभाव और मानव का जीवन है। पराश्रय से गरीबी नाश नहीं होती । इसी कारण सम्पत्ति के आश्रित शान्ति नहीं मिलती । परिश्रम पर-सेवा के लिए है। उसके बदले में अपने को कुछ नहीं चाहिए । तभी मानव श्रम के अन्त में विश्राम को पाकर, स्वाधीन होकर, उदार तथा प्रेमी हो जाता है। हमें यही करना है कि स्वाधीनता का सदुपयोग कर स्वाधीन हो जाएँ ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16)

Thursday, 23 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 23 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है। इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो दुरूपयोग न करने पर सदुपयोग स्वतः होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें।
      
         केवल कर्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृति हो जाय । राग-निवृति से ही स्वतः योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है । प्रकृति का विधान कर्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

        यह सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है। वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरूपयोग न करना कर्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत् के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत् में अपना कुछ नहीं है । अतः अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात् मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है ।
          
        निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है । जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वतः परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्तव्य-विज्ञान है । यह कर्तव्य मानव को स्वतः करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है। यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए । तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यकित में एकता होगी ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 15-16)

Wednesday, 22 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 22 February 2011
(फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
      
 (गत ब्लागसे आगेका)
जीवन-क्रान्ति की दिशा में एक अमर संदेश 
02-12-1972
       
         मानव-मात्र में बीज रूप से मानवता विद्यमान है। उस विद्यमान मानवता को विकसित करने के लिए, एकमात्र सत्संग-योजना ही अचूक उपाय है । बलपूर्वक जो परिवर्तन आता है, वह स्थायी नहीं होता है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है । गुण-दोष व्यक्तिगत हैं । किसी वर्ग विशेष को सदा के लिए हृदयहीन, बेईमान मान लेना न्यायसंगत नहीं है । सभी वर्गों में भले व बुरे व्यक्ति होते हैं । जीवन के परिवर्तन से क्रान्ति आती है, परिस्थिति-परिवर्तन से नहीं ।

        जीवन में परिवर्तन, जाने हुए असत् के त्याग से होता है, बल से नहीं । असत् के त्याग की प्रेरणा व्यापक हो सकती है, व्यक्तिगत सत्संग के प्रभाव से । क्या आप यह नहीं जानते हैं कि एक-एक महापुरुष के पीछे हजारों व्यक्ति चलते हैं, लेकिन हजारों व्यक्ति मिलकर एक महापुरुष नहीं बना सकते ?

        अधिकार-लालसा ने अकर्मण्यता को पोषित किया है और हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दिया है, जो विनाश का मूल है। प्राकृतिक विधान के अनुसार दूसरों के साथ किया हुआ कालान्तर में कई गुना होकर अपने प्रति हो जाता है । इस दृष्टि से बुराई के बदले बुराई करना अहितकर ही है । तो फिर सत्संग-योजना के अतिरिक्त और कोई उपाय क्रान्ति का नहीं है । यह जीवन का सत्य है ।

        मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग मत करो और न पराधीन रहो । यह महामंत्र ही व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रान्ति में उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास तथा अनुभव है। जो सत्य जीवन में आ जाता है, वह अवश्य विभु हो जाता है, यह वैज्ञानिक सत्य है । व्यक्तिगत क्रान्ति से ही सामाजिक क्रान्ति होगी, इस वास्तविकता में अविचल रहना चाहिए; सफलता अवश्यम्भावी है । ॐ आनन्द !
सद्भावना सहित
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 13-14)

Tuesday, 21 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 21 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
  
दिव्य सन्देश 
श्रीवृन्दावन धाम
11-11-1973
प्राणप्यारे के प्रिय जनों !
        सविनय सेवा में निवेदन है कि जो सदैव होने से अभी और सभी का होने से अपना और सर्वत्र होने से अपने में मौजूद है, वही समर्थ है, वही सर्वेश्वर है और वही प्रेमियों का प्राणेश्वर है । उसी को साधन-तत्व अर्थात् गुरु-तत्व एवं साध्य-तत्व भी कहते हैं । वह गुरु-तत्व साध्य का ही प्रतिरूप है, साध्य की कृपामूर्ति ही गुरुमूर्ति है । यह प्रेमीजनों का अनुभव है।   

        साधक की गुरु-तत्व से ही अभिन्नता होती है, और गुरु-तत्व सर्वदा ही साध्य-तत्व से अभिन्न है । निज-ज्ञान गुरु के प्रकाश में अनुभव करो कि प्रतीति का प्रकाशक और उत्पत्ति का आधार जो है, वही अनादि, अनन्त, अविनाशी तत्व है । उसी से साधकों की जातीय एकता तथा नित्य सम्बन्ध है और वे ही सबके अपने हैं । यह वास्तविकता सद्गुरुवाणी के द्वारा ही स्वीकार की जाती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृति स्वतः होने लगती है । अतः जिन भागवतजनों ने गुरुमुख द्वारा उसे, जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा देखा नहीं, अपितु गुरुवाणी के द्वारा स्वीकार किया है, वे धन्य हैं ।

        गुरु-तत्व के बिना अनन्त अगोचर प्राणेश्वर से आत्मीय सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । इस दृष्टि से गुरु-तत्व ही एकमात्र श्रीहरि से मिलाने में हेतु है । ज्ञान का प्रकाश दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है और साधक के सर्व दुखों की निवृति हो सकती है; किन्तु नित नव-रस की उपलब्धि के लिए तो आस्था, श्रद्धा, विश्वाशपूर्वक गुरुवाणी द्वारा ही उसे स्वीकार किया जाता है, जो सभी का सब कुछ है । आत्मीय सम्बन्ध ही एकमात्र अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति में हेतु है। यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सद्गुरुवाणी को अपनाया है । गुरु-तत्व की प्राप्ति होने पर ही भगवत्-तत्व की प्राप्ति होती है । यह भगवत्प्राप्त साधकों का अनुभव है ।

        निज-ज्ञान के आदर से साधक चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु भक्ति-तत्व की प्राप्ति में तो एकमात्र सद्गुरुवाणी में अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वास ही अचूक उपाय है । यह जीवन का सत्य है । हम सभी सद्गुरु जयन्ती महोत्सव मना रहे हैं । हमें अपने आपके सम्बन्ध में सजीवता लानी चाहिए । वह तभी सम्भव होगी, जब हम अपने में अपने परम प्रेमास्पद को स्वीकार कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जायें। सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने विश्वासी जनों को अपनी आत्मीयता प्रदान करें, जिससे वे पावन प्रीति पाकर कृत-कृत्य हो जायें ! इसी सद्भावना के साथ,
अकिंचन
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 11-12)     

Monday, 20 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 20 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, महाशिवरात्रिव्रत, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान?

१३.         यह तो बताओ कि जन्म होते ही, मृत्यु आरम्भ नहीं हो जाती ? प्रत्येक वस्तु निरन्तर काल रूप अग्नि में जल रही है । विवेक की दृष्टि में तो केवल मृत्यु का ज्ञान और अमरत्व की माँग है । अर्थात मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना ही प्राणी का परम पुरुषार्थ है । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५० (Letter No. 50)

१४.         आजकल गृह अस्पताल बन गया है । तुम्हारा पवित्र शरीर भी पलंग पर पड़ा है । रोग भगवान भोग तथा शरीर की वास्तविकता का ज्ञान कराने के लिए आते हैं । अतः आये हुए रोग का अभिवादन करो और अपने को शरीर से असंग कर लो । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५८ (Letter No. 58)

१५.         प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिन्तन, अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है । - (साधन त्रिवेणी)

१६.         शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए रोग आया है। कुछ रोग अभिमान बढ़ जाने पर भी होते हैं । किसी साधक को ऐसा छिपा हुआ अभिमान होता है कि जिसकी निवृति कराने के लिए रोग आता है । उनके सिखाने के अनेक ढंग हैं । भय से भी रोग हो जाते हैं । भय और अभिमान का अन्त हो जाने पर कुछ रोग स्वतः नाश हो जाते हैं । निश्चिन्तता तथा निर्भयता आने से प्राणशक्ति सबल होती है जो रोग मिटाने में समर्थ है । उसके लिए हरि-आश्रय तथा विश्राम ही अचूक उपाय है । - (पाथेय)

१७.         जो साधन-सामग्री है, उसके द्वारा साधक किसी प्रकार का सुख-सम्पादन न कर सके, इसी कारण वे रोग के स्वरूप में प्रकट होते हैं । पर साधक यह रहस्य नहीं जान पाता कि मेरे ही प्यारे रोग के वेष में आए हैं । रोग-भोग के राग का अन्त कर अपने-आप चला जाएगा ।  (पाथेय)

१८.         शरीर का पूर्ण स्वस्थ होना शरीर के स्वभाव के विपरीत है; क्योंकि जिस प्रकार दीन और रात दोनों से ही काल की सुन्दरता होती है, उसी प्रकार रोग और आरोग्य दोनों से ही वास्तविकता प्रकाशित होती है ।  - (संत समागम-१)

१९.         कभी-कभी जब प्राणी प्रमादवश विश्वनाथ की वस्तु को अपनी समझने लगता है, तब उसकी आसक्ति मिटाने के लिए 'रोग भगवान' आते हैं । शरीर विश्व की वस्तु है और विश्व विश्वनाथ का है, उसको अपना मत समझो । रोग से 'अशुभ कर्म के फल' का और तप से 'अशुभ कर्म' का अन्त होता है । (संत समागम-२) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

Sunday, 19 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 19 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान ?

६.        रोग की चिन्ता रोग से भी अधिक रोग है । अतः रोग की चिन्ता न करना परम औषधि है। रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है। साधारण प्राणी शरीर की सुन्दरता में आसक्त होकर रोग से डरते हैं। वास्तव में रोग आरोग्य की अपेक्षा जीवन की अधिक आवश्यक वस्तु है । क्योंकि आरोग्य से प्रमाद तथा रोग से जागृति होती है। विचारशील को रोग से न डरकर उसका सदुपयोग करना चाहिए। - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०४ (Letter No. 104)

७.        रोग का वास्तविक हेतु केवल राग है क्योंकि राग से व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम होना स्वाभाविक है और व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम से प्राण-शक्ति का क्षीण होना अनिवार्य है। प्राण-शक्ति के दुर्बल होने पर अनेकों रोग स्वतः आ जाते हैं। - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

८.        कुछ रोग अदृश्य की मलिनता अर्थात् पूर्व कर्म के फल स्वरूप होते हैं । उनकी निवृति तप, त्याग तथा पुण्यकर्म से अथवा भोगने से ही होती है । असंयम द्वारा उत्पन्न रोग यथेष्ट पथ्य अर्थात् आहार-विहार के ठीक होने से मिट जाते हैं और वीतराग होने पर राग से उत्पन्न होनेवाले रोग भी मिट जाते हैं। - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

९.         मेरे विश्वास के अनुसार रोग राग का परिणाम है । राग का अन्त करने के लिए ही रोग उत्पन्न हुआ है । राग का अन्त कर रोग स्वतः नाश हो जाएगा और फिर बुलाने पर भी न आयेगा। - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १२१ (Letter No. 121)

१०.         शरणागत साधक प्रत्येक घटना में अपने परम प्रेमास्पद, परम सुह्रदय की अनुपम लीला का दर्शन करते हैं। रोग के रूप में कोई और नहीं है, वे ही देहाभिमान गलाने के लिए आये हैं । तुम किसी भी काल में शरीर नहीं हो । सदैव सर्वत्र अपने शरणागतवत्सल प्यारे प्रभु को देखो । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १४२ (Letter No. 142)

११.         सच तो यह है कि शरीर के रहते हुए ही विचारपूर्वक शरीर से असंग होना अनिवार्य है और यही वास्तविक आरोग्य है। शरीर से किसी काल में जातीय सम्बन्ध नहीं है, केवल सेवा-कार्य के लिए काल्पनिक सम्बन्ध है । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १५९ (Letter No. 159)

१२.         जिस प्रकार मछलियों के उछलने से समुद्र को खेद नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के बनने-बिगड़ने से विचारशील को क्षोभ नहीं होता । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ ४१ (Letter No. 41) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

(शेष आगेके ब्लाग में)

Saturday, 18 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 18 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण विजया एकादशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

रोग - अभिशाप है या वरदान ?

१.        रोग वास्तव में तप है, क्योंकि यदि रोग न हो तो इंद्रियों के रस से विरक्ति नहीं हो सकती, और न शरीर का यथार्थ ज्ञान होता और न सेवा करनेवालों को अवसर मिलता । सेवा करने से हृदय पवित्र होता है । देखिये, रोग भगवान की  कृपा से रोगी का तथा और लोगों का कितना लाभ हुआ! - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०९ (Letter No. 109)

२.        रोग शरीर का राग मिटाने के लिए, अथवा दूसरों का पुण्य-कर्म बढ़ाने के लिए आता है अथवा आरोग्य शरीरों को सुख प्रदान करने के लिए आता है । रोगावस्था में शरीर के साथ मजाक करनेका अवसर मिलता है । रोग होने पर निज-स्वरूप में निष्ठा हो जानी चाहिए, क्योंकि दुःख से असंगता स्वाभाविक होती है । जैसे टूटे मकान में सूर्य का प्रकाश और वायु अपने आप आते हैं उसी प्रकार रोग आ जाने पर वैराग्यरूपी वायु और ज्ञानरूपी प्रकाश स्वयं होता है । शरीर तथा संसार की अनुकूलता की आशा मत करो । शरीर की सत्यता तथा सुन्दरता मिट जाने पर काम का अन्त हो जाता है । काम का अन्त होते ही राम अपने आप आ जाते है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ९५ (Letter No. 95)

३.         प्राकृतिक विधान के अनुसार रोग वास्तव में तप है। किन्तु साधारण प्राणी उससे भयभीत होकर वास्तविक लाभ नहीं उठा पाते । रोग से शरीर की वास्तविकता का ज्ञान होता है तथा इन्द्रिय-लोलुपता मिट जाती है । भयंकर रोग छोटे-छोटे रोगों को मिटाकर आरोग्य तथा विकास प्रदान करता है । भोग-वासनाओं का अन्त कर देने पर मन में स्थिरता स्वतः आ जाती है। ज्यों-ज्यों स्थिरता स्थायी होती जाती है त्यों-त्यों रोग मिटाने की शक्ति अपने आप उत्पन्न होती जाती है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १४७ (Letter No. 147)

४.        शारीरिक दशा कहने में नहीं आती, क्योंकि कथन उसका हो सकता है, जो एक सा रहे । इस सराय में रोग-रूपी मुसाफिर तो ठहरते ही रहते हैं । वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और निराशा ही आरोग्यता है । देह-भाव का त्याग ही सच्ची औषधि है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ३३ (Letter No. 33)

५.        जब प्राणी तप नहीं करता तब उसको रोग के स्वरूप में तप करना पड़ता है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १३२ (Letter No. 132)

(शेष आगेके ब्लाग में)

Friday, 17 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Friday, 17 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        यह जो आपका शरीर है यह भी तो आपको मिला है । इसकी सेवा करो, अपनी सेवा करो । अगर आप अकिंचन और अचाह नहीं होते तो क्या अपनी सेवा कर सकते हैं ? अगर आप उदार नहीं बनते तो क्या आप विश्व की सेवा कर सकते हैं ? अगर आप प्रभु को अपना नहीं मानते; प्रेमी नहीं बनते तो प्रभु की सेवा कर सकते हैं क्या ? प्रेम तत्व की प्राप्ति का अर्थ क्या है ? प्रभु की सेवा, और त्याग का अर्थ क्या है? अपनी सेवा और उदारता का अर्थ क्या है - जगत की सेवा ।

        तो आप अपनी सेवा कर सकते हैं, जगत् की सेवा कर सकते हैं और प्रभु की सेवा कर सकते हैं । सेवा ही तो मानव जीवन का सार सर्वस्व है । इस सम्बन्ध में हमारी दृष्टि नहीं जाती । हम इस तरह सोचते ही नहीं । तो जिस प्रभु ने हमें यह स्वाधीनता दी कि हम जगत् की सेवा कर सकते हैं, अपनी सेवा कर सकते हैं और प्रभु की सेवा कर सकते हैं, हम उस प्रभु की महिमा गायें ।

-'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 30) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        This your body, even this is given to you. Serve it, serve yourself. Can you serve yourself unless purged of the sense of ownership and desire? Can you serve the world unless you become magnanimous? Can you serve God unless with feeling for him as your closest kin and becoming Divine lover? What is the meaning of attaining the quintessential love? It is identical with service to God. And what is the import of renunciation? It amounts to serving oneself. 

        Thus, you can be serviceable to yourself, to the world and to God. Service alone is the quintessence of human life. Our attention doesn’t get on focus in this regard. We don’t think this way. Let us sing the glory of God, the dispenser of freedom with which we can serve the world, ourselves and the Lord himself.

-From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 36-37)  

Thursday, 16 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Thursday, 16 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        सभी के प्रति सद्भाव यह सेवा है, यथाशक्ति सहयोग यह सेवा है । इस दृष्टि से जो व्यक्ति हृदय में सद्भाव रखता है, वह तो इतनी बड़ी सेवा करता है कि हम आपको क्या बतावें । अगर किसी पंगु को देखकर हृदय में यह भाव उदय होता है कि इस बेचारे से चला नहीं जाता । लाओ इसे वहाँ पहुँचा दें, तो आपमें उदारता की जागृति होती है कि नहीं ? तो सेवा तो हर आदमी कर सकता है।

        लेकिन दुःख की बात तो यह है कि कुछ लोग सोचते हैं कि पैसा खर्च कर दो तो सेवा हो गई । कुछ लोग समझते हैं कि शरीर से कार्य कर दो तो सेवा हो गई । कर्म में और सेवा में भेद है । कर्म अपने सुख की भावना से प्रेरित होकर किया जाता है और सेवा परहित की दृष्टि से की जाती है । तो जो सभी का हित चाहता है वह सेवा कर सकता है । जो अपना सुख चाहता है कि घर छोड़ दो, वन में चले जाओ, भिक्षा माँग कर खाओ और भिक्षा सुविधा से मिल गई तो बड़ा सुख मालूम होता है, नहीं मिली तो दुःख मालूम होता है । इसने सेवा की क्या ? इससे तो शरीर की सेवा भी नहीं बनी, मन की सेवा भी नहीं बनी, प्राणों की सेवा भी नहीं बनी ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 29) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        It is service to cherish goodwill for all and offer co-operation according to capacity. I am unable to point out to you the extent of greatness of service done by the individual who cherishes goodwill in his heart. If a lame, helpless fellow unable to walk comes across and empathy to the effect of feeling to reach him there, to safe resort rises in the heart, is not it awakening of generosity in you? This is reaching out of the heart to serve, to extend the helping the helping hand. It is clear, then, that service is the dimension of sadhana, the spiritual path every man can embark upon.

       But what is painful to notice is how some people opine that spending money becomes equivalent to service?  Some people misunderstand that labor put in work amounts to service. There is a marked difference between work and service. Work is performed with motivated concern for personal pleasure and comfort whereas service is rendered with concern for well-being of the other. He who wants the welfare of all is eligible to offer service. On the other hand is he who seeks personal joy by formal abnegation of home and hearth, goes a recluse to the forest, lives on alms, enjoys himself greatly when alms are received conveniently and repines in sorrow when not available? Does such willful renunciation measure up to any service? This amounts not even to service of the body, nor to the service of the mind, not even to the vital breath of the being.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 36)  

Wednesday, 15 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Wednesday, 15 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

       मानव जीवन में सेवा का व्रत एक महत्वपूर्ण साधन है क्योंकि सेवा प्रेम का क्रियात्मक रूप है और त्याग प्रेम का विवेकात्मक रूप है। प्रेम तत्व में ही जीवन की पूर्णता है । जबतक प्रेम तत्व से अभिन्नता नहीं होती तबतक जीवन पूर्ण नहीं होता । प्रेम तत्व की प्राप्ति के लिए सेवा और त्याग साधन हैं । सेवा और त्याग के बिना प्रेम की प्राप्ति नहीं होती । तो दुःख का प्रभाव हमें त्याग की प्रेरणा देता है और सुख हमें सेवा की प्रेरणा देता है । इस हिसाब से सेवा और त्याग साधना हुईं और प्रेम तत्व की प्राप्ति साध्य हुआ ।

        सेवा कोई नहीं कर सकता, ऐसी बात है ही नहीं । किसी का बुरा न चाहो यह नहीं कर सकता ? बुराई-रहित वह नहीं हो सकता ? (श्रोता का उत्तर "हो सकता है") तो मानवमात्र सेवा कर सकता है कि नहीं ? सेवा का आरम्भ जो होता है वह बुराई-रहित होने से, मध्य में सुखद घड़ियों में यथाशक्ति भलाई से और अन्त में अचाह होने से । अगर भलाई का फल चाहेगा तो सेवा नहीं हो सकती; बुराई-रहित नहीं होगा तो सेवा नहीं हो सकती । तो भलाई का फल मत चाहो और बुराई-रहित हो जाओ यही तो सेवा का स्वरूप है । 

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 28-29) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

       The solemn vow of service is an important sadhana in human life because service is the operative anatomy of love and renunciation is its core of perceptive wisdom. Life attains to its mellow fruitfulness only in the quintessence of love. It does not gain perfection so long as there is no identity of oneness with the kernel of love. Service and sacrifice are the means to realize the quintessence of love. Love is not attained in the absence of service and self-abnegation. Suffering inspires us to surrender, to forgo and happiness inspires to render service. Accounting this way, service and renunciation are modes of sadhana and the sadhya, the ideal, is to realize quintessential love.

        It is absolutely erroneous to conceive that someone or anyone is incapable of effecting service. Can’t he generate goodwill enough not to wish ill of anyone? Can’t he be free from evil? The audience replies he can be. Can’t human being as a whole, then afford to offer their services in this way? Service begin with getting clear of evil, by doing good in accordance with capacity in the interim of joyous spells and being desireless at the end. Service can’t come about with desire for the fruit of it, nor can it be brought about unless evil is cleared away.  Thus, not to desire the fruit of doing good and to get rid of evil, this epitomizes the identity of service.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 35-36)  

Tuesday, 14 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Tuesday, 14 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        हमसे गलती क्या होती है ? हम सुख-दुःख को साधन-सामग्री नहीं मानते, जीवन मान लेते हैं। मानवीय प्रवृति के अनुसार, प्राकृतिक विधान के अनुसार, सुख-दुःख साधन-सामग्री है । अगर यह सत्य हमें जँच जाए, रुच जाए, पसन्द आ जाए, तो जो जीवन, सुख के सदुपयोग से मिल सकता है, वही जीवन दुःख के सदुपयोग से भी मिल सकता है । तो हमें सुख-दुःख में समता प्राप्त हो सकती है कि नहीं ? सुख-दुःख के द्वारा हम सुख-दुःख से अतीत, अविनाशी, स्वाधीन रसरूप चिन्मय जीवन को प्राप्त कर सकते हैं कि नहीं ?

        यह आस्था की दृढ़ता कि हम सुख-दुःख से अतीत, अविनाशी, स्वाधीन, चिन्मय जीवन को प्राप्त कर सकते हैं, बड़े काम की चीज है । यह आस्था बड़े काम की चीज है । अगर हमें आज यह निर्भरता प्राप्त हो जाय, कि हम यह स्वीकार करें कि यह जीवन का सत्य है कि सुख-दुःख के सदुपयोग से अविनाशी, स्वाधीन, रसरूप, चिन्मय जीवन की प्राप्ति होती है, उसकी माँग जीवन में भर लें । अविनाशी जीवन की माँग जीवन में नहीं है क्या ? (श्रोता का उत्तर - है) स्वाधीन जीवन की माँग है । रसरूप जीवन की माँग है । जिसकी माँग होती है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता होती है । सुख की माँग नहीं है; सुख की तो रूचि है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 28) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        What is the wrong we are exposed to in this dualism of joy and sorrow? Instead of utilizing them as material for sadhana, we are misled into taking them as stuff of life itself. On the other hand joy and sorrow are implements of sadhana in accordance with human nature or the dispensation of nature. If it is cognized to be true, interesting, agreeable and even endearing, it should be taken for granted that the same life is attained either by putting joy or sorrow to good use. Can’t we then attain to equanimity of even-mindedness between joy and sorrow? Can’t we obtain the aspired life, immortal, free, blissful, of pure awareness beyond joy and sorrow by means of them?

       This resolute firmness of faith that I can obtain life which is free, immortal, of pure awareness, transcending the duality of joy and sorrow, is an input of great utility. This faith is of high usefulness. If we acquire this reliance of faith today accepting the truth of life that immortal, free, blissful life of pure awareness is attained by utilizing joy and sorrow, we should get replenished with the aspiration of it. Is there no demand for immortality in life? The audience replies with ‘yes, there is’. There is compelling need for freedom, an innate demand for ecstatic bliss. That which evokes compelling aspiration must have an absolute, independent existence. There is no aspiration for joy; we have only an inclination to indulge in it.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 34)  

Monday, 13 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Monday, 13 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        अरे भाई, आज हमारे पास धन है, इसको अगर हम अपनी खुराक बनाएँगे, अपने लिए मानेगें तो इसके नाश होने पर हमें निर्धनता की पीड़ा सहनी पड़ेगी । यह बल हमारा अपने लिए नहीं है, यह तो निर्बलों की सेवा के लिए है । तो जिसके जीवन में सेवा का भाव उदय हो जाता है, उसे शारीरिक प्रवृति सेवा ही मालूम होती है । उसे रोटी खिलाना मालूम होता है, खाना नहीं मालूम होता । उसे पानी पिलाना मालूम होता है, पीना नहीं मालूम होता । इसमें फर्क है या नहीं ? तो सेवा एक ऐसा विलक्षण भाव है कि इससे हरेक प्रवृति सेवा हो जाती है ।

        सेवा का अन्त त्याग में होता है और त्याग की पूर्णता बोध और प्रेम में होती है । इसलिए सुख की घडियाँ सेवा करने के लिए हैं और दुःख की घडियाँ दुःख के प्रभाव से सुख के प्रलोभन को नाश करने के लिए हैं । सुख की नाशक नहीं हैं, सुख के प्रलोभन की नाशक हैं । सुख का प्रलोभन कब रहता है ? जब हम सुख भोगते हैं । सेवा करनेवाले में सुख का प्रलोभन नहीं रहता है। और सुख का प्रलोभन नाश होने के बाद दुःख का स्वतः नाश हो जाता है । जिसको जीने की आशा नहीं रहती, उसको मरने का भय भी नहीं रहता । जो लाभ का सुख नहीं भोगता, वह हानि के भय से भयभीत नहीं होता ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 27-28) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        Look, brother, we will have to suffer an anguish of impoverishment in case we turn the wealth at our disposal into daily food regarding it for ourselves. This strength is not for our own shake; it is meant to be at the service of the weak. Once the disposition to serve wakes up, every physical undertaking is converted into service. Then feeding becomes palpable to him, not taking meal himself. He knows helping others drink water remaining unaware of quenching himself. Isn’t there a chasm of difference between two? Service is such an exceptional feeling as every undertaking gets transformed into service by it.

        Service culminates in renunciation which attains its repletion of fullness in inward awareness and divine love. Therefore, spells of joy are meant for offering service and durations of suffering are intended to demolish the lure of joy by their influence. They dismantle only the lure of pleasure, not pleasure itself. When the temptation for pleasure does exist? Only so long as we enjoy ourselves. It does not obtain in those who offer service.  And all suffering ends on its own, when the lure of joy is eradicated. Whosoever is free from the wishful hope to live is free also from the fear of death. He who does not luxuriate in the pleasure of gain is not afraid of the fear of loss.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 34)  

Sunday, 12 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Sunday, 12 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        जब जीवन में से सुख का प्रलोभन चला जाता है या आप स्वयं छोड़ देते हैं तो दुःख का भय भी चला जाता है। क्योंकि सुख के भोगी को ही तो दुःख भोगना पड़ता है । यह जो दुःख है यह हमारी मर्जी से आता है कि अपने आप आता है। अपने आप आने वाले दुःख के प्रभाव को अपनाना चाहिए या नहीं? हम सुख के बाद दुःख का भोग करने लगते हैं । हाय ! हम बहुत दुखी हैं, हाय ! हम बहुत दुखी हैं । इस प्रकार दुःख का भोग करने लगते हैं उसके प्रभाव को नहीं अपनाते । अगर हम दुःख के प्रभाव  को ठीक-ठीक अपनाएँ तो उससे सुख का नाश नहीं होगा, उसका प्रलोभन नाश होगा ।

        सुख के प्रलोभन का नाश होने पर सुख में आसक्ति रह सकती है क्या ? अच्छा और दुःख के प्रभाव को अपनाने पर दुःख का भय रहता है क्या ? तो दुःख का भय न रहे, सुख का प्रलोभन न रहे, सुख आए, चला जाय, दुःख आए अपना प्रभाव दे जाए। अब जीवन में इस प्रकार देखा जाय तो दुःख साधन-सामग्री है या कुछ और है ? अगर दुःख को हम साधन-सामग्री स्वीकार करें तो हम सुख के भोगी न बनकर सेवा करनेवाले बन जाएँ । 

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 26-27) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        When temptation for pleasure goes away from life or you abnegate it yourself, the fear of pain also departs. It is because he alone who indulges in pleasure is bound to suffer pain. Does sorrow come whenever we wish or does it come on its own? Should we not adopt instead the edifying import of suffering which comes on its own? After indulging in pleasure we begin to wallow in the mire of agony exclaiming ‘oh! We are seriously anguished.’ Thus do we tend to wallow in suffering instead of assimilating its import? If we adopt exactly the edification of wisdom from suffering, it will demolish only our temptation for joy, not the joy itself.

        Can attachment to pleasure survive the demolition of fascination for it? Well, does fear of suffering obtain after adopting the influence of wisdom instilled by it? It is worthwhile that there be no fear of suffering, no lure of pleasure; let pleasure come and go away, let pain come and pass of instilling its guidance. Viewed in this way suffering is only the stuff, the implement, of sadhana or is it anything else? Accepting all anguish as mere material for sadhana we can become eligible servants of the people by abnegation of indulgence in pleasure. 

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 33-34)  

Saturday, 11 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Saturday, 11 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        अब आप विचार करके देखें कि सुख का भोग तो अच्छा लगता है, लेकिन उसका परिणाम अच्छा होता है क्या ? जिसका परिणाम रुचिकर नहीं होता उससे अरुचि हो जाना, उसको नापसन्द करना क्या स्वाभाविक बात नहीं है? हम परिणाम पर दृष्टि न रखें और सुखद अनुभूति को जीवन मान लें, क्या यह साधक का लक्ष्ण है ?

        क्या कोई भी सुखद अनुभूति ऐसी होती है, जिसका आरम्भ और अन्त दुःखमय न हो । आरम्भ भी जिसका दुःख है और अन्त भी जिसका दुःख है, केवल कुछ काल के लिए आपको सुखद अनुभूति होती है तो सुख का भोग दुःख है या सुख ? दुःख ही है। भोग नाश हो जाएगा, भोग करने की शक्ति का ह्रास हो जाएगा, यदि एस सत्य को स्वीकार करें तो भोगों को भोगने का सुख, सुख है क्या ?

        तो मैं यह निवेदन कर रहा था कि प्रत्येक भाई-बहन को अपने जाने हुए सत्य का ठीक-ठीक अध्ययन करना चाहिए, मनन करना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए । आप विचार करके देखिये, आपको भूख अच्छी मालूम होती है जब हम यह विश्वास कर लेते हैं कि हम भूखे हैं । तो भूख का लगना सुखद मालूम होता है कि नहीं ? भोजन करने के साथ-साथ भोजन करने की सामर्थ्य का ह्रास हो जाएगा । भोग-सामग्री का विनाश हो जाएगा । अब इस सत्य को सामने रखें तो क्या लगेगा? सुख का जो प्रलोभन है वह रह जाएगा ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 26) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        Now consider the psychology of enjoyment in view of the fact that whereas it feels good in the interim, does it keep going consequentially? Isn’t it natural to dislike it outright with its uninteresting consequence? Is it the mark of sadhaka not to keep an eye on the resultant and regard indulgence in pleasure as fulfilled life?

        Is there any pleasurable experience without sorrowful origin and end? Dos enjoyment originating with perturbation of pain and ending in sorrow, with only a brief interim of pleasant perception, amount really to sorrow or joy? It is only sorrow. Indulgence will peter out; the energy to enjoy will diminish. If we accept the overt truth of life, does enjoyment reckon with happiness?

        I have been urging intently on every sadhaka, brother and sister, to study exactly the truth already known to them, to ponder over and accept them. Think and look! Hunger appeals when we believe we are hungry. Then does the feeling of hunger appears pleasant or not? As we keep eating the capacity to take will diminish. The food-stuff will undergo demolition, only the temptation to indulge will remain.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 33)  

Friday, 10 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Friday, 10 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        हम अपनी भूल से ही पराधीनता में, अभाव में, अशान्ति में, नीरसता में आबद्ध होते हैं । हमें कोई और पराधीन नहीं बनाता, और कोई अभाव में आबद्ध नहीं करता, अशान्ति दूसरे लोगों की दी हुई नहीं है, हमने स्वयं ही अपने जीवन में इन विकारों को उत्पन्न कर लिया है । यदि हम जीवन के इस सत्य को स्वीकार करें तो जो विकार हमने स्वयं उत्पन्न किए हैं, वे सब नाश हो सकते हैं । क्या इस सत्य को स्वीकार करने को हम राजी हैं ? यदि आप राजी हैं तो आपकी साधक संज्ञा हो गई ।

        जो सत्य को स्वीकार करता है, वही साधक कहलाता है; वही मानव कहलाता है । जिसमें सत्य को स्वीकार करने की स्वाधीनता ही नहीं है; उस सत्य का बोध ही नहीं है उसकी मानव संज्ञा ही नहीं है, वह प्राणी है । वह भोगयोनी है । वह सुख का भोग करेगा हर्षपूर्वक और उसे दुःख भोगना पड़ेगा, विवश होकर। हम हर्षपूर्वक सुख का भोग करें और विवश होकर हमें दुःख भोगना पड़े यह साधक संज्ञा नहीं है । साधक संज्ञा तभी से आरम्भ होती है, जब से हम जीवन के सत्य को स्वीकार करते हैं।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 25) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        We are subjected to the other, to want, restiveness and monotony only because of our own fault of inattention. None else subjugates nor binds us to want; restlessness is not thrust on us; we alone have fomented the perversity in our life. If we accept this truth of life, all the self-fomented perversities can be eradicated. Are we willing to admit this truth? You deserve the specification of the sadhaka in case you are willing to admit this truth. 

        He alone who accepts the truth is called a sadhaka, a human being. None devoid even of the freedom to accept truth, of the mere awareness of it, is a human being; it is just a living being of the origin confined to perception of pleasure and pain. It will enjoy pleasure and suffer pain under compulsion. It is not congruent to the appellation of sadhaka to enjoy pleasure and bear pain under coercion. The name of sadhaka commences only when we accept the truth of life.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 33)  

Thursday, 9 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Thursday, 09 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

       बुराई क्या है? स्वाधीनता का दुरूपयोग ही वास्तव में बुराई है । आप विचार करके देखो - यदि ऐसा विधान होता कि हम झूठ बोलने की सोचते तो वाणी अवरुद्ध हो जाती । ऐसा होने पर क्या हमको यह भास होता कि हम सत्य बोलते हैं ? क्या राय है? तो प्रभु ने यह विधान नहीं बनाया । इसलिए प्रभु ने यह विधान नहीं बनाया कि मानव मिली हुई स्वाधीनता के सदुपयोग से यह स्वयं स्वीकार करे कि मैं धर्मात्मा हूँ, मैं जीवनमुक्त हूँ, मैं भगवद्भक्त हूँ । तो धर्मात्मा होने की उपाधि, जीवनमुक्त होने की उपाधि, भगवद्भक्त होने की उपाधि 'यह' के अन्तर्गत नहीं है, यह 'स्व' के अन्तर्गत है ।

        यह जो ज्ञान का प्रकाश मिला है, आस्था का तत्व मिला है और बल का तत्व मिला है, यह साधन-सामग्री है और मानव साधक है । तो साधन-सामग्री आपको मिली हुई है, उसके सदुपयोग की स्वाधीनता आपको मिली हुई है । अब आप सोचिए कि फिर भी हम यदि साधन-निष्ठ नहीं होते तो इसमें किसी परिस्थिति विशेष का हाथ नहीं है, यह हमारा ही प्रमाद है। साधन-सामग्री भी हमें प्राप्त है, उसके सदुपयोग की स्वाधीनता भी हमको प्राप्त है फिर भी हम यदि उस साधन-सामग्री का सदुपयोग नहीं करते तो यह हमारी ही भूल है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 24-25) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        What is evil? In fact, it is only perverse misuse of freedom given to us. Look! Had it been a divine dispensation for speech to be blocked forthwith as we tended to tell a lie, could we get the semblance to it when speaking the truth? What is your opinion? It is why God did not allow it to come to pass. He did not let it come into force in order that man, by using allocated freedom, should realize on his own that he is a religious being, enlightened and devoted to God. So that the degree of being religious, enlightened or devotee of God is not for ‘this’, the world, to give, it is cognized by man himself in his inward awareness.

        This light of awareness, essence of faith and element of strength serviceable to man are materials for sadhana and man is the sadhaka. You have already been given the implements of sadhana as well as the freedom to use them. Nevertheless the fact that we don’t become dedicated to sadhana is really strange and curious. It is not due to any particular circumstances, it is due to our own want of attention, our own carelessness. Despite all the in-built equipment for sadhana and the freedom to use them the failure to implement is due to our own confusion of negligence. Not to put these to good use is our own inadvertent omission.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 32-33)