Saturday, 14 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 14 January 2012
(माघ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - महाराजजी ! सत्य की प्राप्ति में कितना समय लगता है ?
उत्तर - जिसकी जितनी तीव्र जिज्ञासा होती है, उसे उतना ही कम समय लगता है । जब आप सत्य के बिना चैन से न रहेंगे, वह उसी समय मिल जाएगा। 

प्रश्न - स्वामीजी, यदि घर की प्रतिकूलता के कारण साधन न हो सके, तो क्या साधक को घर छोड़ देना चाहिए ?
उत्तर - सच्चा मानव-सेवा-संघी कभी घर नहीं छोड़ता, बल्कि ममता, कामना और अपना अधिकार छोड़ता है ।

प्रश्न - महाराजजी, क्या मैं घरबार छोड़कर आश्रम में रह सकता हूँ ?
उत्तर - मानव-सेवा संघ किसी का घर बर्बाद करके आश्रम को आबाद नहीं करना चाहता । परन्तु यदि आपका परिवार आप पर निर्भर न हो और घर में आप सुख-दुःख का सदुपयोग न कर सकें, तो आ जायें ।

प्रश्न - महाराजजी ! धन का अभाव क्यों सताता है ?
उत्तर - तुम धन को अधिक महत्व देते हो ।

प्रश्न - महाराजजी ! जब मैं ध्यान करने बैठता हूँ, तो कभी तो खूब शान्ति रहती है और कभी ऐसा लगता है कि क्रिया-शक्ति का वेग अभी बाकी है ।
उत्तर - करने का राग अभी निवृत नहीं हुआ ।

प्रश्न - स्वामीजी ! साधन में सफलता नहीं मिल रही है ।
उत्तर - अपनी रूचि, योग्यता और सामर्थ्य के अनुरूप साधन-निर्माण नहीं किया ।

प्रश्न - स्वामीजी ! भगवान् छिपा क्यों रहता है ?
उत्तर - भगवान् के प्रति आस्था, श्रद्धा, विश्वासपूर्वक आत्मीयता और प्रियता जाग्रत नहीं हुई । 

प्रश्न - स्वामीजी, मन में बहुत विकार पैदा होते हैं, क्या करूँ ?
उत्तर - गहरी वेदना होनी चाहिए ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 16-17) । 

Friday, 13 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 13 January 2012
(माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - विवेक और बुद्धि में क्या अन्तर है ?
उत्तर - विवेक प्रकाश है, बुद्धि दृष्टि है । जैसे दृष्टि प्रकाश में काम करती है, वैसे ही बुद्धि विवेक के प्रकाश में काम करती है । विवेक का आदर करने से बुद्धि विवेकवती हो जाती है । विवेकवती बुद्धि की बड़ी महिमा है । 

प्रश्न - जिज्ञासा तीव्र क्यों नहीं होती ?
उत्तर - क्योंकि सन्देह की वेदना निर्जीव है ।

प्रश्न - कैसे समझें कि ममता का नाश हो गया ?
उत्तर - पेट भरने पर क्या आपने परोसने वाले से पूछा कि मेरा पेट भरा या नहीं ? ममता का त्याग होने पर आपको स्वतः विदित हो जाएगा ।

प्रश्न - मानव सेवा संघ के दर्शन में सेवा, त्याग और प्रेम की बात कही जाती है । इनमें से किसी एक को लेकर चला जाय या तीनों को ?
उत्तर - हर मानव को तीन शक्तियाँ विधान से मिली हैं  - 
1. करने की शक्ति (कर्तव्य-पथ)
2. जानने की शक्ति (ज्ञान-पथ)
3. मानने की शक्ति (विश्वास-पथ)
इन तीनों शक्तियों में से किसी एक शक्ति की प्रधानता होती है। अतः साधक में जिस शक्ति की प्रधानता हो, उसी को लेकर चलना चाहिए । शेष दो शक्तियों का विकास और सदुपयोग अपने आप हो जाएगा । साधक चाहे तो तीनों को साथ-साथ लेकर भी चल सकता है ।

प्रश्न - यह जानते हुए भी कि ममता और कामना जीवन में नहीं रखनी चाहिए, जब हमारे उपर कोई दुःख आता है तो दुखी होकर विचलित हो जाते हैं । इससे छुटकारा पाने का उपाय क्या है ?
उत्तर - जिन वस्तुओं और व्यक्तियों द्वारा हम सुख भोगने की आशा करते हैं, उनके वियोग से अवश्य ही दुखी होना पड़ेगा। अतः यदि हम चाहें कि दुःख से छुटकारा मिले, तो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति एवं अवस्था से हमें सुख भोगना अथवा सुख की आशा करना छोड़ देना चाहिए । तब जीवन से दुःख अवश्य ही चला जाएगा ।

प्रश्न - बेईमान दुनियाँ में ईमानदारी आदमी कैसे जिए ?
उत्तर - बेईमानी का कारण लोभ है । निर्लोभता में दरिद्रता का नाश है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 15-16) । 

Thursday, 12 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 12 January 2012
(माघ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - माँग कैसे पूरी होती है ?
उत्तर - माँग तीन प्रकार से होती है। कामना को लेकर, लालसा को लेकर तथा जिज्ञासा को लेकर। भोगों की कामना, सत्य की जिज्ञासा और प्रभु-प्रेम की लालसा। जिज्ञासा कहते हैं जानने की इच्छा को। लालसा कहते हैं प्रभु पाने की इच्छा को और कामना कहते हैं भोगों की इच्छा को । जिसमें भोग की कामना, सत्य की जिज्ञासा और परमात्मा की लालसा - ये तीनों बातें होती हैं, उसे "मैं" कहते हैं । कामना भूल से उत्पन्न होती है, उसकी निवृति (प्राप्त निज-विवेक के आदर से) हो सकती है । जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है । फिर प्रभु की प्राप्ति हो जाती है । अतः कामना की निवृति, जिज्ञासा की पूर्ति और परमात्मा की प्राप्ति मनुष्य को हो सकती है । 

प्रश्न - दुःख की निवृति कैसे हो ?
उत्तर - वासनाओं की निवृति होने से दुःख की निवृति होती है । जब साधक विवेक का आदर करके यह समझ लेता है कि "मैं शरीर नहीं हूँ", तब वासनाओं और संकल्पों का अभाव हो जाता है। इसके होते ही दुःख मिट जाते हैं । इंद्रियों और मन के क्रिया-रहित हो जाने पर वासनाओं का अन्त अपने आप हो जाता है ।

प्रश्न - मुझे क्या करना चाहिए ?
उत्तर - यदि बिना किए रह सको, तो कुछ भी नहीं करना चाहिए। यदि बिना किए न रह सको, तो सब कुछ करना चाहिए । भोगों के बाद शोक की प्राप्ति निश्चित है । प्रत्येक कर्म के दो फल होते हैं। एक दृश्य जो अपने आप मिट जाता है । दूसरा अदृश्य जो फल की कामना न होने पर मिट जाता है । अतः जो कुछ करो, चाह-रहित, चिन्तन-रहित और फल की आशा से रहित होकर करो। जिस साधन से प्रभु से सम्बन्ध जुड़े वही करना चाहिए। अतः करना हो तो सेवा करो अथवा त्याग करो ।

प्रश्न - कभी तो ऐसा मालूम होता है कि हृदय में प्रेम है और कभी ऐसा मालूम होता है कि हृदय सुना है, प्रेम नहीं है । यह क्या है ?
उत्तर - आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्य संसार पर जितना भरोसा करता है, उतना भगवान् पर नहीं करता । संसार पर भरोसा करके बहुत बार धोखा खाया है । भगवान् पर भरोसा करनेवाले को कभी धोखा नहीं हुआ । 
        मनुष्य स्वयं अलग रहकर अपने मन, बुद्धि और इंद्रियों को भगवान् में लगाना चाहता है । भूल यहीं से होती है । प्रेम का सम्बन्ध साधक से है, उसकी बुद्धि, मन व इंद्रियों से नहीं है ।
        परम प्रियतम प्रभु को ही अपना मानें, उसी पर विश्वास करें और उसी से प्रेम करें । मनुष्य अनित्य वस्तुओं से सुख की आशा करके उनमें आसक्त हो गया है । इससे ही वह ईश्वर-प्रेम से विमुख हो गया है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 13-14) । 

Wednesday, 11 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 January 2012
(माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - कर्म से स्थाई प्रसन्नता क्यों नहीं मिलती है ?
उत्तर - कर्म, शरीर, व संसार, इन तीनों का स्वरूप एक ही है । इनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है उससे स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती। स्वतन्त्रता के बिना प्रसन्नता कहाँ ? अतः कर्मादि से प्रसन्नता नहीं मिल सकती ।

प्रश्न - कर्म किस प्रकार करना चाहिए ?
उत्तर - कर्म विश्व-प्रेम के भाव से करना चाहिए । ऐसा करने से भोगों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । भोगों का यथार्थ ज्ञान होने पर त्याग अपने आप होता है । फिर कर्म करने में रूचि नहीं रहती। करने के राग की निवृति हो जाती है और योग प्राप्त होता है।

प्रश्न - मनुष्य को शान्ति क्यों नहीं मिलती ?
उत्तर - कामना पूरी करने के लिए कर्म करने से शान्ति नहीं मिलती । साधक यदि चित-शुद्धि का प्रयत्न करे, तो शान्ति अपने आप आ जाती है ।

प्रश्न - भगवान् हमसे प्रेम करते हैं, यह कैसे मालूम हो ?
उत्तर - भगवान् पर विश्वास हो और उनसे हमारा सम्बन्ध हो, तब मालूम हो सकता है । जैसे माता अपने बच्चे के लिए तरसती है, वैसे ही भगवान् अपने भक्त के लिए तरसते हैं । बच्चा काला-कलूटा, गूँगा-बहरा, लूला-लँगड़ा कैसा भी हो, माता उससे प्रेम करती है । बच्चा भी यह बात समझता है । भगवान् में तो माता से अनेक गुना वात्सल्य है । फिर वे भक्त से प्रेम करें, इसमें कहना ही क्या ? अतः जो एकमात्र भगवान् को ही मानते हैं, उनको भगवान् का प्रेम मिलता है । इसमें सन्देह नहीं है। यह भक्तों का अनुभव है । ईश्वर प्रेमीभक्त को ढूँढ़ता है। विचारशील साधक ईश्वर को ढूँढ़ता है ।

प्रश्न - अपने दोष कैसे देखें और उसको कैसे मिटाएँ ?
उत्तर  - गुण और दोषों को देखने की शक्ति प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है । जिस योग्यता से हम दूसरों के दोषों को देखते हैं, उसी योग्यता से अपने दोषों को देखें । अपने दोषों को ठीक-ठीक देख लेने पर गहरा दुःख होता है । गहरा दुःख होने से दोष दूर हो जाते हैं । दूसरों के दोष और अपने गुण देखने से मनुष्य का विकास रुक जाता है और अभिमान पुष्ट होता है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 12-13) । 

Tuesday, 10 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 10 January 2012
(माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

सब साधनों का सार

1. भक्ति : सब प्रकार से प्रेम के पात्र हो जाओ यही भक्ति है ।

2. मुक्ति : अपनी प्रसन्नता के लिए किसी अन्य की ओर मत देखो । यही मुक्ति है ।

3. त्याग : संसार की दासता मन से निकाल दो यही त्याग है ।

4. जो कुछ हो रहा है, वह मंगलमय विधान से हो रहा है - ऐसा मान लेने से निश्चिन्तता आती है ।

5. जो शरीर, प्राण आदि वस्तु व्यक्ति को अपना नहीं मानता - वह निर्भय हो जाता है ।

6. जो "है" (भगवान्) वही मेरा अपना है - इसमें जिसने आस्था स्वीकार कर ली, उसी में प्रियता उदित होती है ।

7. निश्चिन्तता से शान्ति, निर्भयता से स्वाधीनता तथा प्रियता से रस की अभिव्यक्ति होती है । यही मानव की माँग (लक्ष्य) है ।

8. उसे सब कुछ मिल जाता है जो किसी का बुरा नहीं चाहता है ।

9. कार्य उसी का सिद्ध होता है, जो दूसरों के काम (न्यायोचित काम) आता है ।

10. मोहयुक्त क्षमा, क्रोधयुक्त त्याग और लोभयुक्त उदारता निरर्थक है ।

11. भाव में पवित्रता हो, कार्य में कुशलता हो और लक्ष्य (परमात्मा) पर दृष्टि हो, तो प्रत्येक प्रवृति से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ।

12. पालन-पोषण व शिक्षा पाकर ही मानव कुछ देने के योग्य होता है । इससे स्पष्ट है कि लिया हुआ देना है । परिवार के जो सदस्य समर्थ हैं वे असमर्थ बालकों और वृद्धों की सेवा करें । यह सद्भावना समाज के लिए उपयोगी है । जिसकी सेवा की जाती है उसकी अपेक्षा सेवा करनेवाले का अधिक विकास होता है ।

13. सम्पन्न व्यक्ति दुखियों के काम आयें - क्योंकि समस्त बल निर्बलों की धरोहर है । सबके भले में ही अपना भला है । सबल व निर्बल की एकता ही समाज का सुन्दर चित्र है ।

14. संसार उसी को प्यार करता है जो दूसरों के काम आता है। और संसार के काम वही प्राणी आता है जो सब प्रकार से भगवान् का हो जाता है ।

15. पूर्ण जीवन क्या है ? - शरीर विश्व के काम आ जाए, हृदय प्रीति से छका रहे और अहम् अभिमान शून्य हो जाय ।

॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥

Monday, 9 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 09 January 2012
(पौष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अहंकृत-रहित होना

        जिसने हमारा और जगत् का निर्माण किया, उसने अपने ही में से किया है । इस दृष्टि से हम और जगत् उससे अभिन्न हैं। किन्तु प्रमाद के कारण आज हमें जगत् और जगत्पति से भिन्नता प्रतीत होती है । इस भिन्नता का अन्त किए बिना जीवन उपयोगी नहीं हो सकता ।

        जब हम जगत् से कुछ आशा करते हैं, तब जगत् से भिन्नता प्रतीत होती है और जब जगत्पति में हमारी अगाध प्रियता नहीं रहती, तब उनसे हमारी भिन्नता प्रतीत होती है ।

        यदि विचारपूर्वक जगत् से आशा न करें और मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य, जो जगत्पति ने जगत् की सेवा के लिए दी है, वे उसी कि सेवा में अर्पित कर दें, तो शरीर आदि से असंगता और जगत् से अभिन्नता स्वतः हो जाएगी, जिसके होते ही शरीर और विश्व की एकता स्वतः सिद्ध होगी । शरीर और विश्व की एकता का अनुभव हमें जगत्पति से नित्य सम्बन्ध तथा आत्मीयता जाग्रत करने में सहयोगी होगा, कारण, कि जब शरीर अपना करके नहीं रहा, तब अपनी अहंता उन्हीं की आत्मीयता में परिणत हो गई, जिन्होंने मेरा और जगत् का निर्माण किया था । इस दृष्टि से मानव अचाह हो कर जगत्पति से अभिन्न हो, कृतकृत्य हो जाता है ।

        अचाह होते ही सेवा और प्रेम सहज हो जाता है । प्रेम से सेवा और सेवा से प्रेम पोषित होता है । अथवा यों कहो कि प्रेम का क्रियात्मक रूप सेवा और सेवा का लक्ष्य प्रेम है । प्रेम किसी प्रकार की भिन्नता नहीं रहने देता, यह प्रेम की महिमा है ।

        पर जबतक साधक अपने लिए कुछ भी करता है, तबतक सेवा और प्रेम का अधिकारी नहीं होता । जिसे अपने लिए कुछ भी करना नहीं है, वही अपने लिए उपयोगी सिद्ध होकर सभी के लिए उपयोगी होता है ।

 -  'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 24-25)

Sunday, 8 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 08 January 2012
(पौष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अहंकृत-रहित होना

        प्राप्त ज्ञान का प्रकाश मिली हुई सामर्थ्य, वस्तु, योग्यता आदि से सम्बन्ध-विच्छेद करने की प्रेरणा देता है, अर्थात् वास्तविकता को स्पष्ट करता है । वास्तविकता को अपनाते ही अपना करके वही सिद्ध होता है, जो अपने को जानता है । साधक जिसको (संसार को) जानता है, वह उसका अपना नहीं है, अपने लिए नहीं है, यही सिद्ध होता है ।

        कैसी विचित्र बात है कि अपने वे (संसार के रचयिता) हैं, जिन्हें हम नहीं जानते, अपितु जो हमें जानते हैं । उन्हीं में अविचल आस्था-श्रद्धा और विश्वास पूर्वक आत्मीयता स्वीकार करना है । मिली हुई किसी भी वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि ने एक बार भी नहीं कहा कि हम तुम्हारे हैं ।

        हम जो (संसार के रचयिता) अपने हैं, उन्हें अपना न मानकर, जो अपना नहीं हैं, उसे (संसार को) अपना मानते हैं। इस भूल का अन्त करने के लिए प्रत्येक साधक को ममता, कामना, तथा अधिकार-लोलुपता को त्याग, अहंकृत-रहित होना अनिवार्य है । तभी जीवन अपने लिए उपयोगी होगा । अपने लिए उपयोगी होते ही जगत् के प्रति उदारता और जगत्पति के लिए प्रेम स्वतः जाग्रत होता है । यह मंगलमय विधान है ।

 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 24)