Thursday 12 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 12 January 2012
(माघ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - माँग कैसे पूरी होती है ?
उत्तर - माँग तीन प्रकार से होती है। कामना को लेकर, लालसा को लेकर तथा जिज्ञासा को लेकर। भोगों की कामना, सत्य की जिज्ञासा और प्रभु-प्रेम की लालसा। जिज्ञासा कहते हैं जानने की इच्छा को। लालसा कहते हैं प्रभु पाने की इच्छा को और कामना कहते हैं भोगों की इच्छा को । जिसमें भोग की कामना, सत्य की जिज्ञासा और परमात्मा की लालसा - ये तीनों बातें होती हैं, उसे "मैं" कहते हैं । कामना भूल से उत्पन्न होती है, उसकी निवृति (प्राप्त निज-विवेक के आदर से) हो सकती है । जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है । फिर प्रभु की प्राप्ति हो जाती है । अतः कामना की निवृति, जिज्ञासा की पूर्ति और परमात्मा की प्राप्ति मनुष्य को हो सकती है । 

प्रश्न - दुःख की निवृति कैसे हो ?
उत्तर - वासनाओं की निवृति होने से दुःख की निवृति होती है । जब साधक विवेक का आदर करके यह समझ लेता है कि "मैं शरीर नहीं हूँ", तब वासनाओं और संकल्पों का अभाव हो जाता है। इसके होते ही दुःख मिट जाते हैं । इंद्रियों और मन के क्रिया-रहित हो जाने पर वासनाओं का अन्त अपने आप हो जाता है ।

प्रश्न - मुझे क्या करना चाहिए ?
उत्तर - यदि बिना किए रह सको, तो कुछ भी नहीं करना चाहिए। यदि बिना किए न रह सको, तो सब कुछ करना चाहिए । भोगों के बाद शोक की प्राप्ति निश्चित है । प्रत्येक कर्म के दो फल होते हैं। एक दृश्य जो अपने आप मिट जाता है । दूसरा अदृश्य जो फल की कामना न होने पर मिट जाता है । अतः जो कुछ करो, चाह-रहित, चिन्तन-रहित और फल की आशा से रहित होकर करो। जिस साधन से प्रभु से सम्बन्ध जुड़े वही करना चाहिए। अतः करना हो तो सेवा करो अथवा त्याग करो ।

प्रश्न - कभी तो ऐसा मालूम होता है कि हृदय में प्रेम है और कभी ऐसा मालूम होता है कि हृदय सुना है, प्रेम नहीं है । यह क्या है ?
उत्तर - आश्चर्य की बात तो यह है कि मनुष्य संसार पर जितना भरोसा करता है, उतना भगवान् पर नहीं करता । संसार पर भरोसा करके बहुत बार धोखा खाया है । भगवान् पर भरोसा करनेवाले को कभी धोखा नहीं हुआ । 
        मनुष्य स्वयं अलग रहकर अपने मन, बुद्धि और इंद्रियों को भगवान् में लगाना चाहता है । भूल यहीं से होती है । प्रेम का सम्बन्ध साधक से है, उसकी बुद्धि, मन व इंद्रियों से नहीं है ।
        परम प्रियतम प्रभु को ही अपना मानें, उसी पर विश्वास करें और उसी से प्रेम करें । मनुष्य अनित्य वस्तुओं से सुख की आशा करके उनमें आसक्त हो गया है । इससे ही वह ईश्वर-प्रेम से विमुख हो गया है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 13-14) ।