Sunday, 19
April 2015
(वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७२, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन
और नीति
वर्तमान की निर्दोषता को स्वीकार किए बिना किसी के जीवन में निर्दोषता
की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती । यह सभी का अनुभव है कि सर्वांश में तो कोई अपने को
दोषी मानता ही नहीं । गुण और दोष-युक्त स्वीकृति सभी में स्वभाव से ही होती है । दोष
की स्वीकृति भूतकाल की घटनाओं के आधार पर और गुणों की स्वीकृति स्वभाव-सिद्ध होती है
। यदि मानव अपने में से किए हुए दोषों के त्याग का महावत लेकर केवल स्वभाव-सिद्ध निर्दोषता
को स्वीकार करे, तो गुण-दोष-युक्त द्वन्द्वात्मक स्थिति का नाश हो जाता है, जिसके होते ही अहम्-भाव रूपी अणु सदा के लिए मिट जाता है और फिर एकमात्र निर्दोषता
ही निर्दोषता रह जाती है, जो पहले भी थी, अब भी है और सदैव रहेगी
ही ।
जो नष्ट होती है, वह निर्दोषता नहीं है । जो सदैव रहती है, वही निर्दोषता है । दोषों की उत्पत्ति होती है । निर्दोषता अनुत्पन्न है ।
देहाभिमान के कारण अनुत्पन्न निर्दोषता पर व्यक्ति दोषों का आरोप कर बैठता है । देहाभिमान
अविवेक-सिद्ध है, वास्तविक नहीं । निर्दोषता की माँग कामनाओं
को खाकर स्वत: देहाभिमान को नष्ट कर देती है । इस दृष्टि से निर्दोषता की माँग में
ही निर्दोषता की प्राप्ति निहित है ।
देहाभिमान के कारण किए हुए दोषों के आधार पर नित्य-प्राप्त निर्दोषता
से दूरी तथा भेद स्वीकार कर, बेचारा व्यक्ति अपने को दोषी मान लेता है । उसका परिणाम
यह होता है कि निर्दोष काल में भी भूतकाल के दोषों की स्मृति से भयभीत होकर अपने को
दोषी मान लेता है और निर्दोष होने की लालसा को पूरा करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार
के प्रयास करता है । किन्तु अपने को दोषी मानने के कारण उसके प्रयास निष्फल होते हैं
। अपने को दोषी मान लेने पर दोषयुक्त प्रवृत्ति में स्वाभाविकता और निर्दोषता में अस्वाभाविकता
मानने लगता है । परन्तु जब निज-विवेक के प्रकाश में वर्तमान वस्तुस्थिति का अध्ययन
करता है, तब उसे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि जिन दोषों की
स्मृति आ रही है, वे भूतकाल में किए थे ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति
पुस्तक से, (Page No. 32-33) ।