Saturday, 18 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 18 April 2015 
(वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७२, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

जब मानव अपनी और दूसरों की वर्तमान निर्दोषता को स्वीकार कर लेता है, तब उसे भूतकाल में किये हुए दोषों को त्याग करने में बड़ी ही सुगमता हो जाती है । यह नियम है कि जिसमें से अपराधी भाव का अन्त हो जाता है, उसमें निर्दोषता की अभिव्यक्ति स्वत: होने लगती है । अर्थात् निर्दोषता का प्रभाव उसके शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि पर होने लगता है और फिर उसके दैनिक जीवन से समाज में निर्दोषता फैलने लगती है । निर्दोषता की स्वीकृति में ही निर्दोषता की व्यापकता विद्यमान है । इस रहस्य को जान लेने पर मानवमात्र बड़ी ही सुगमता पूर्वक निर्दोषता से अभिन्न हो सकता है ।

अब यदि कोई यह कहे कि अपने को निर्दोष मानने से तो मिथ्या अभिमान की उत्पत्ति होगी, जो स्वयं बहुत बड़ा दोष है । पर बात ऐसी नहीं है । अभिमान की उत्पत्ति तो तब होगी, जब अपने को निर्दोष और दूसरों को दोषी मानें । जिसने सभी की निर्दोषता स्वीकार की है, उसमें समता की अभिव्यक्ति होगी, अभिमान की नहीं । समता योग है, अभिमान भोग है । यह सभी को मान्य होगा कि भोग की सिद्धि विषमता में है, समता में नहीं । अपने को दोषी और दूसरों को निर्दोष तथा दूसरों को दोषी और अपने को निर्दोष मानना विषमता है । विषमता का नाश सभी में निर्दोषता की स्थापना करते ही स्वत: हो जाता है । विषमता के नष्ट होते ही भोग 'योग' में विलीन हो जाता है । योग सामर्थ्य का प्रतीक है । सामर्थ्य के आते ही जो नहीं करना चाहिए, उसकी उत्पत्ति ही नहीं होती और जो करना चाहिए, वह स्वत: होने लगता है अथवा यों कहो कि दोष की उत्पत्ति ही नहीं होती और निर्दोषता जीवन में ओत-प्रोत होकर अपने आपको स्वयं प्रकाशित करने लगती है । निर्दोषता की माँग जीवन की माँग है । इस माँग को किसी भी प्रकार मिटाया नहीं जा सकता । जिसको मिटाया नहीं जा सकता, उसकी पूर्ति अनिवार्य है । भूतकाल के किए हुए दोषों के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता को अस्वीकार करना, दोषों को जन्म देना है और वर्तमान की निर्दोषता को स्वीकार करना दोषों के अस्तित्व को ही समाप्त कर देना है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 31-32)